सोमवार, 21 मई 2012

वेश धारण कर लेने से ही कोई साधु नहीं हो जाता


कोई आदमी साधु के कपडे पहन ले और भौतिक पदार्थों को अपना मानकर मोह को हमेशा जागृत रखे, साधु-जीवन में भी पर-पदार्थों के प्रति आसक्त रहे तो वह सच्चे रूप में साधु नहीं है। वह ढोंगी है। ऐसे लोगों के लिए दुर्गति तैयार ही है। वेश धारण करने से ही सद्गति सुनिश्चित नहीं होती। वेश बदलने के साथ व्यवहार में भी साधुता आनी चाहिए। वेश धारण किया और व्यवहार उसके विपरीत हो तो ऐसा नहीं चल सकता। साधु वेश धारण करके भी विपरीत बर्ताव करने वाले साधु समाज में शाप रूप हैं और वे अपना व दूसरों का भी अहित करने वाले होते हैं। ऐसा वेशधारी दूसरों को तो धोखा दे ही रहा है, स्वयं अपनी आत्मा को भी धोखा दे रहा है।

इसके साथ यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि किसी को बाधक हुए बिना जीने की और आत्मा की स्वाभाविक दशा पाने के लिए लडने की जितनी सामग्री यहां साधु जीवन में उपलब्ध है, उतनी अन्यत्र नहीं है। चाहे जो भी करो, लेकिन आप के यहां मरण संबंधी स्नान करने के समाचार आए बिना रहेंगे? हमारे यहां कभी स्नान के समाचार नहीं आते। हम कभी किसी के मरने पर स्नान करने नहीं गए। हमारा घरबार नहीं तो जलेगा क्या? हमारी कोई भी चीज जल जाए, लेकिन हमारा कुछ जल गया, इस तरह का दुःख आपकी तरह हमें कभी नहीं हुआ। हमारे मरने के बाद क्या होगा, ऐसी कोई चिन्ता हमें नहीं होती। यह तो ऐसा जीवन है कि यदि ठीक से जीना आ जाए तो बडे से बडा राजा भी इसके सामने रंक नजर आए।

साधु होकर मोहपाश से बंधा हुआ हो और स्वच्छंदी जीवन जी रहा हो तो वह साधु नहीं है, अपितु साधु के वेश में शैतान है। ऐसा जीवन जीते हुए भी जो अपने को साधु कहलाता है, वह महापापी है। साधु का मतलब है सर्वथा मोहरहित, इतना ही नहीं, बल्कि जो मोह को मारने निकला है, वह साधु! जो छोडा हो, उसका इच्छुक साधु नहीं होना चाहिए। वह संयम का ही अर्थी होना चाहिए और वह संयम भी आत्मा के साथ अनादिकाल से जुडी हुई कर्मयोग स्वरूप मलीनता से आत्मा को मुक्त बनाने के लिए होना चाहिए। साधु ने जिसे छोडा हो, उसी का यदि इच्छुक हो जाए और उसके मोह में फंसा हुआ हो और आत्मा की उपेक्षा कर रहा हो, पर पदार्थों के पीछे पागल बन गया हो और ऐसी मूर्खताभरी प्रवृत्तियां करता हो तो वह साधु नहीं, शैतान ही है। ऐसा साधु दुनिया का भला करने की बजाय अहित ही ज्यादा करेगा।

पर-पदार्थ को अपना मानना अधर्म है। ऐसे अधर्म से जो दूर हो, यह अधर्म जिसे अधर्म-स्वरूप लगे, इस अधर्मता का जिसे ज्ञान हो और जो धर्ममय जीवन जीता हो, वह तो राजाओं का राजा है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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