सोमवार, 14 मई 2012

श्रमण धर्म की श्रेष्ठता

देव जीवन, मानव जीवन, पशु जीवन और नर्क जीवन, इन सभी में मानव जीवन ही श्रेष्ठ है। मानव जीवन में भी यथेच्छ जीवन, मार्गानुसारी जीवन, सम्यकदृष्टि जीवन, देशविरतिरूप गृहस्थ जीवन और सर्वविरतिरूप श्रमण जीवन में श्रमण जीवन ही श्रेष्ठ जीवन है;
· जिस जीवन में जीने के लिए एक भी पाप करने की आवश्यकता नहीं है।
· जिस जीवन में किसी भी जीव को थोडा भी दुःख नहीं पहुंचाया जाता/दिया जाता।
· जिस जीवन में थोडा-सा भी झूठ नहीं बोला जाता।
· जिस जीवन में तृणवत् तुच्छ चीज की भी चोरी संभव नहीं है।
· जिस जीवन में पांचों इन्द्रियों के समग्र विषय सुखों का विरागपूर्वक सम्पूर्ण त्याग करना होता है।
· जिस जीवन में तिलतुष मात्र भी परिग्रह का अवकाश नहीं होता।
· जिस जीवन में पल-पल दोषशुद्धि और गुणवृद्धि की साधना करनी होती है।
· जिस जीवन में आत्मा को परमात्म पद में प्रस्थापित करने का प्रकृष्ट पुरुषार्थ प्रवर्तमान होता है।
· जो जीवन विश्व के लिए प्रेरणारूपी प्याऊ जैसा है।
· जिस जीवन में विश्व शान्ति के बीज बोए गए हैं, जिसकी परिपूर्ण साधना अनादिकर्म के बंधनों को तोडकर आत्मा को परमात्मा बनाता है, ऐसा जीवन अर्थात् श्रमण जीवन।
· जो जीवन देवों के अधिनायक के लिए भी इच्छनीय, स्पृहणीय, आदरणीय होता है। देवता भी सदा कामना करते हैं कि ऐसे जीवन की प्राप्ति कब हो?
· जो जीवन सभी प्रकार के कर्मों का क्षय करके, अरिहंत और फिर सिद्धावस्था की ओर ले जाता हो, जहां अक्षय सुख, अक्षय शान्ति और अक्षय आनन्द हो।
क्या आप सारे दुःख-दर्द, संसार की झंझटों और रोजमर्रा के क्लेशों, छल-कपट, झूठ-प्रपंच से मुक्त होकर ऐसे जीवन की कामना करते हैं? क्या आप ऐसा जीवन जीना चाहते हैं? क्या आप परम् सुख, परम् शान्ति और परम् आनंद पाना चाहते हैं? यदि हां, तो फिर देर किस बात की? आपको आर्यदेश, मानव जीवन, जैन कुल, सुदेव, सुगुरु और सुधर्म का योग मिला है, यही सही वक्त है, जब आप अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने की साधना कर सकते हैं। अगले जन्म में फिर ये सब सुयोग मिलेंगे, इस बात की कोई गारंटी नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें