जैन अर्थात् अपनी आत्मा
को जड के अनादिकालीन योग से मुक्त बनाने के लिए अनंतज्ञानी वीतराग परमात्मा के
द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर पूर्ण श्रद्धालु आत्मा और यथाशक्य उस पर चलने के लिए
प्रयत्नशील आत्मा। इसमें साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका चारों आ जाते हैं। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका ये चारों अपनी आत्मा को
अनादिकालीन जड के संयोग से मुक्त बनाने की अभिलाषा वाले होते हैं। अनंतज्ञानी
जिनेश्वर परमात्मा द्वारा निर्दिष्ट जड-चेतन के स्वरूप तथा जड से चेतन को अलग करने
के मार्ग पर ये चारों श्रद्धालु भी होते हैं। इस अभिलाषा और श्रद्धा के बल से ये
जिनेश्वर देव की आज्ञा को अपने जीवन में, आचरण में लाने के लिए प्रयत्नशील भी होते
हैं। इन चारों की सामूहिकता, यानी चतुर्विध श्री संघ अर्थात् मोक्षमार्ग पर श्रद्धावान् तथा उस मार्ग पर
यथाशक्य आचरण करने वाला श्री संघ।
जैन का अर्थ ही है- ‘अपनी आत्मा को जड के अनादिकालीन
संयोग से मुक्त करने के लिए श्री जिनेश्वर की आज्ञा पर श्रद्धा रखकर आज्ञानुसार
चलने के लिए इच्छुक आत्मा।’
जैन
कुल में जन्मा हुआ ही ‘जैन’ होता है, ऐसा नियम नहीं है। जो कोई आत्मा ऐसी अभिलाषा और
श्रद्धापूर्वक जिनाज्ञानुसार अपनी आत्मा को जड के अनादिकालीन संसर्ग से मुक्त करने
के लिए प्रयत्नशील होती हैं, वे सब जैन हैं। उपकारी महापुरुषों का फरमान है कि दुनिया के सभी जीव इस प्रकार
के जैन बनें। दुनिया के जीवों को जो सुख चाहिए, वह सच्चे जैन बने बिना मिलने वाला नहीं है। दुःख का
अन्त भी इसके बिना शक्य नहीं है। दुनिया के जीवों की दुःख-मुक्ति और सुख-प्राप्ति
के लिए ही उन महापुरुषों ने मोक्ष-मार्ग बतलाया है। वे महापुरुष जानते हैं कि जब
तक आत्मा जड के अनादिकालीन योग से और भोग से मुक्त नहीं बनेगी, तब तक आत्मा सच्चे
सुख को प्राप्त नहीं कर सकेगी।
‘धर्म का मूल दया है’, इस बात को सभी स्वीकार करते हैं, परन्तु दया किसकी? मात्र दीन-दुःखी जीवों की ही दया
या अपनी आत्मा की भी दया?
आजकल
लोग बाह्य दया की उपासना में आत्मा की दया भूल गए हैं, इस कारण दया, दया के रूप में न रहकर हिंसा रूप बन जाती है। सच्चा
दयालु वह है, जिसके दिल में अपनी
आत्मा की दया है। जिसके दिल में आत्मदया नहीं है, उसके दिल में अन्य जीवों के प्रति श्रेष्ठ कोटि की
दया पैदा हो ही नहीं सकती है। आत्म-दया रहित जीवदया प्रायः स्वार्थप्रधान होती है।
सिर्फ बाह्य दया के उपासक,
दया
के नाम पर अन्य जीवों को भयंकर नुकसान पहुंचा देते हैं। आत्म-दया के ज्ञान के अभाव
में दुनिया के लोग अपनी आत्मा को जड की सेवा में जोडकर अपने आत्म-हित का हनन करते
हैं। वे अपने संबंधी, आश्रित व मित्रों को भी
जड-रसिक बनाकर उनके भी आत्म-हित को नुकसान पहुंचाते हैं। सच्चा जैन, सच्चा दयालु तो जड के संसर्ग से
अपनी आत्मा को मुक्त बनाने के लिए महापुरुषों द्वारा निर्दिष्ट मार्ग में अपनी
आत्मा को जोडता है और दूसरों को भी जड के संयोग से मुक्त बनाने के लिए महापुरुषों
द्वारा निर्दिष्ट मार्ग से जोडता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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