मां तुम्हें
प्रणाम्!
मां, इस एक शब्द में इतना प्यार, ममता, त्याग, तपस्या भरी हुई है कि किसी और
तरह की व्याख्या की जरूरत ही नहीं है। तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई की सन् 2005 की एक घटना है। 36 साल की एक मां तम्मी चेलवी ने
खुद को पंखे से लटका कर आत्महत्या कर ली। हालांकि मैं उसके इस कदम को सिरे से
खारिज करता हूं और उसके आत्महत्या करने को बिलकुल गलत और महापाप मानता हूं, लेकिन आप जानते हैं, उसने आत्महत्या क्यों की? इसलिए कि उसके दो बेटे कुमारन (17 वर्ष) और मोहन कुमार (15 वर्ष) दृष्टिहीन हैं और वह
चाहती थी कि उसकी मृत्यु के बाद उसकी दो आँखों में से एक-एक दोनों को मिल जाए, ताकि वे दुनिया देख सकें।
दरअसल चेलवी
का पति शंकर और वह स्वयं कई स्थानों से कोशिश कर हार चुके थे कि उनके बेटों को
ऑंखें दान में मिल जाएं। जब कहीं से मदद नहीं मिली तो पति-पत्नी ने तय किया कि
दोनों में से जो पहले मरेगा, उसकी ऑंखें
बच्चों को मिलेंगी। मां जल्दी में थी, बच्चे
दुनिया देखें। वह फांसी चढ गई और दुर्भाग्य देखिए, उचित समय पर
ऑंखें नहीं निकाली जा सकीं और दोनों रोते-बिलखते बच्चे मां की ‘कृपा-दृष्टि’ से वंचित हो गए।
विचार करें
चेलवी का। वह मां थी। मां ऐसी ही होती है। हर मां चेलवी होती है। मां अपना हर दिन, हर घडी, हर पल बच्चों पर कुर्बान कर
देती है और बच्चे हैं कि उनके पास इस दौडती-भागती, लडती-झगडती
दुनिया में मां के लिए वक्त नहीं है, क्योंकि मां
के लालन-पालन, आशीर्वाद से
वे बडे हो गए, खडे हो गए
हैं, बडे आदमी हो
गए हैं, उनकी शादी
हो गई है, उनकी पत्नी
और बच्चों को वक्त की दरकार है, इसलिए वे
अपनी मां के लिए वक्त नहीं निकाल सकते, मां के साथ
मुस्कराने का भी वक्त नहीं।
मां के लिए
इतना तो करें, उसे प्रणाम
करें। बार-बार करें। हम मां के ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकते, हर पल हमारे मन में मां के
प्रति और दुनिया की समस्त माताओं के प्रति कृतज्ञता भाव रहे।
मां स्नेह
की, प्यार की, विश्वास की, प्रोत्साहन की और सम्पूर्ण
त्याग की मां है। मां जादू है, मां शब्द
उच्चारते ही लब खुल जाते हैं, मानो कह रहे
हों, लो दिल के
दरीचे खुल गए, अब भावनाओं
की गांठें खोल दो, बहने दो मन
को- मां जो सामने है। “मां” एक छोटे-से
शब्द में समाए पूरे संसार के, हर इंसान के
अस्तित्व के, परवरिश, प्यार और विश्वास के प्रमाण का
नाम है। यह नाम तो हर पल के, हर तार में
धडकता है। इसे एक दिन याद नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसे
तो किसी भी पल भुलाया ही नहीं जा सकता। महसूस करके देखिए, मां किस जादू का नाम है।
बच्चों की
भलाई के लिए मां को कभी-कभी कठोर बनना पडता है, पर इसमें
उसका दिल कितना दुखता है, यह तो बस
वही जानती है। बच्चा अपनी बात, जिद, भावनाएं मां से बेझिझक कहलेता
है, पर कई बार
मां चाहकर भी बच्चों से कह नहीं पाती है, मैं हूं न!
बच्चे को
मां नौ महीने तक गर्भ में रखती है, अपनी बाहों
में तीन साल तक और अपने हृदय में तब तक, जब तक कि
खुद उसकी मृत्यु न हो जाए।
मां और
बच्चे के बीच ‘अमूक’ समझ होती है। मां की बच्चे से
मनोभौतिक और बोधात्मक एकता होती है, इस एकता के
लिए कोई अलग से प्रयास नहीं करना पडता, यह स्वतः
स्वाभाविक और प्राकृतिक रूप से विकसित हो जाती है। यह मजबूत बोधात्मक बंधन
जीवनपर्यन्त उपस्थित होता है, क्योंकि
इसकी जडें जितनी चेतन में होती हैं, उतनी ही
अचेतन में। मातृत्व की यह स्थिति दुनिया की सबसे प्राकृतिक अवस्था है, जो सबसे अधिक रहस्यमयी और
सांसारिक है। यदि इसके तत्त्वों का विश्लेषण करना शुरू कर दिया जाए तो वहां मापने
योग्य कुछ नहीं है, क्योंकि
इसकी सीमाएं मानवीय बुद्धि से परे है, जिनकी गिनती
संभव नहीं है।
जीवन की हर परिस्थिति
में एक सच्चे मित्र और मार्गदर्शक की भाँति वह अपने शरीर के अंश का साथ देती है।
जब भारी और अचानक आई विपत्तियां मनुष्य को घेर लेती हैं, जब समृद्धि का स्थान दुर्भाग्य
ले लेता है, जब सुख में
साथ देने वाले मित्र साथ छोड देते हैं और दुःख अपना घेरा चारों ओर बना देता है, तब वह अकेली इन विपरीत
परिस्थितियों में भी स्वयं मोर्चा लेती है और कोशिश करती है कि उसके अंश पर कोई आंच
न आए, वह विपरीत
परिस्थितियों में भी अपने अंश के लिए प्रोत्साहन का माध्यम बनती है। प्रेम और
वात्सल्य की यह अवस्था उस स्थिति में भी बरकरार रहती है, जब बालक जिद्दी, कृतघ्न, चिडचिडा या बुरा हो, लेकिन मां को ऐसे में भी इस बात
का गर्व रहता है कि उसने एक इंसान को जन्म दिया है, जो उसकी
दृष्टि में दयालु, विनम्र, बहादुर और बुद्धिमान है।
पूर्वाभास
की क्षमता
उसका हृदय
बच्चे के लिए एक पाठशाला है, जहां एक
शिक्षक की तरह अनुशासन और पालना देने वाली मां का एक स्पर्श तक शब्दों की दुनिया
से परे होता है, जो बालक को
एक सुरक्षित आवरण प्रदान करता है। यह अद्भुत् क्षमता मां की प्राकृतिक विशेषता है, जो मातृत्व-पूर्वाभास से जुडी
है। मातृत्व पूर्वाभास में उपस्थित शक्ति मां को अपने बच्चे की अनकही पीडाओं और
तकलीफों का आभास करवाती है, चाहे वह
अपने बच्चे के साथ हो या उससे मीलों दूर। मां का यह स्वचालित शस्त्र इतना अधिक
शक्तिशाली होता है कि बच्चा जब तक स्वयं खतरे का अनुभव कर पाए या उससे निबटने के
लिए प्रभावी कदम उठा पाए, मां को उसकी
विपत्तियों का आभास हो जाता है। दरअसल मानव के मस्तिष्क और आत्मा में संवाद के कई
माध्यम होते हैं, जिन्हें
वैज्ञानिक शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता है और ये क्षमताएं मां और बच्चे
में नैसर्गिक रूप से होती हैं; जहां भयानक
मुसीबतों में बच्चे को बचाने की अद्वितीय शक्तियां मां के पास होती हैं। किसी
बीमार या अक्षम बच्चे की देखभाल अपने जीवन के अंत तक करना या उसके जीवन के लिए
अपनी जिंदगी का बलिदान देना, ऐसी ही
विलक्षण शक्तियों का उदाहरण है।
मां की
दुर्दशा और घर की इज्जत
यह मां की
भूमिका, दायित्व और
भावनात्मक अनुभूतियां हैं; लेकिन आज
ऐसी ही कई माताओं की कैसी दुर्दशा है? इस सवाल पर
सोचते हुए भी मन घबराता है, आकुल-व्याकुल
होता है, उन संतानों
को धिक्कारते हुए मन में एक अजीब-सा आक्रोश, वितृष्णा, दुःख और अफसोस का भाव अन्तर
हृदय से उमडता है, जिन संतानों
को मां की कद्र नहीं है, जो मां की
उपेक्षा करते हैं, जो अपनी
पत्नी को मां और मातृत्व का बोध नहीं करा सके, वे बहुएं
निश्चित रूप से दुर्भाग्यशाली हैं, जो अपनी
सासु मां का तिरस्कार करती हैं, ऐसी बहुएं
जब मां बनती हैं तो उनका मां बनना सिर्फ वासनायुक्त परिणति होती है, वे उन अद्भुत् शक्तियों से
वंचित रह जाती हैं जो एक मां को सहज रूप से प्राप्त होनी चाहिए। उनमें संवेदन
शून्यता पैदा होती है जो कालांतर में उन्हें भी बेटे से दूर कर देती है।
अभी हाल ही
कोटा की प्रेमलता जैन को उसका इकलौता बेटा-बहू पांच दिन के लिए मकान में बन्द कर
ताला लगाकर मुम्बई-तिरूपति घूमने चले गए। वे पांच दिन का लुक्का-सूखा खाना एक साथ
बनाकर मां के लिए छोड गए। तीन दिन बाद पडौसियों को भनक लगी कि मकान के अन्दर मांजी
बन्द हैं तो उन्होंने पुलिस को बुलाया, पुलिस ने
मकान के ताले तोडकर मांजी को बाहर निकाला। चौथे दिन अखबार में खबर पढकर ब्यावर से
बेटी-दामाद कोटा पहुंचे और मां को अपने पास ले गए।
जयपुर के
हीरे-जवाहरात के एक व्यापारी के यहां एक्साईज वालों ने छापा मारा तो घर पर कोई
नहीं मिला, व्यापारी की
मां छत पर सामायिक में बैठी थी, पास में एक
टिफिन रखा था। छापा मारने वाली टीम का अधिकारी भी दरडा जैन था। वह समझदार/विवेकवान
था। उसने मांजी के सामायिक पालने तक की प्रतीक्षा की। सामायिक पूरी होने पर
अधिकारी ने परिवार के बाकी लोगों के संबंध में पूछा। मांजी ने बताया कि वे सभी
बाहर पिकनिक पर गए हैं। अधिकारी ने उन्हें फोन कर बुलवाया। उनके आने तक अधिकारी ने
मांजी से पूछा, इस टिफिन
में क्या है? मांजी एकदम
टिफिन पर लपकी और गोद में छुपाने लगी। अधिकारी ने कहा मांजी यह टिफिन हमें देखने
दीजिए। मांजी ने विरोध किया, यह टिफिन
मैं आपको नहीं दे सकती, इसमें मेरे
घर की इज्जत है। अधिकारी ने महिला पुलिस के जरिए टिफिन जब्त कर खुलवाया तो उसमें
लुक्की-सूखी बासी रोटियां और आचार था, जो मांजी की
बहुएं मांजी के खाने के लिए छोडकर पिकनिक गई थीं।
यह तस्वीर
का एक और रूप है, मां का एक
और रूप कि घर में प्रताडना, उपेक्षा के
बावजूद घर की इज्जत, बेटे की
इज्जत को बचाना। समाज में ऐसी एक-दो नहीं, सैकडों
घटनाएं घटित हो रही है। धिक्कार है ऐसे बेटे-बहुओं को।
मां के दिल
की गहराइयों और सहनशक्ति को नापना संभव नहीं है। मां को अनेक तरह से परिभाषित किया
जा सकता है, किन्तु किसी
एक परिभाषा में बांधा नहीं जा सकता। मां हमारे जीवन की पहली पाठशाला है। वह हमारे
सारे दुःख हर लेती है और हमारे जीवन को सुख, खुशियों से
भर देती है। वह चिरस्मरणीय है, जीवन के
अंतिम क्षण तक हम उन्हें नमन करें, उनके चरण
पखार कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करें।
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