मोह को मारकर और
मोह-मारक शासन स्थापित कर मोक्ष में पधारे हुए अरिहंतों के पास हम प्रतिदिन जाते
हैं फिर भी मोह बुरा नहीं लगता, तो यह कैसे चल सकता है?
सब
तीर्थंकर राजकुल में उत्पन्न हुए थे, उनके पास सुख-वैभव की अपार सामग्री थी। वे उसे ठुकरा कर चले गए। उनकी तुलना
में आप के पास कुछ भी नहीं,
तथापि
आप उसे पकडे बैठे हो, मोह का यह कैसा
साम्राज्य है?
अरिहंत की आराधना करनी
है तो मोह के सामने आँखें लाल करनी होगी। मोह को बढाने के लिए अनेक बार धर्म किया
और मोह की मार खाते रहे। जिसे यह मोह बुरा नहीं लगता, उसके लिए तो यह मनुष्य जन्म खराब से खराब है। दुनिया
जिसे अच्छा समझती है, उसे भगवान बुरा बताते
हैं।
जन्म को मिटाने के लिए, जन्म न लेना पडे, ऐसी स्थिति पैदा करने के लिए जो
कुछ किया जाता है, वह धर्म है। मनुष्य
जन्म पाकर भावी जन्म का नाश किया जा सकता है। जन्म का नाश, मतलब जन्म-मरण की परम्परा का नाश होना है। जो कुछ
धर्म करना है, वह जन्म के नाश के लिए
करना है।
जन्म लेने की इच्छा न
हो तो सर्वविरति को स्वीकार किए बिना कोई चारा नहीं है। सम्यग्दर्शन हो तभी
सम्यग्चारित्र का भाव, सर्वविरति का भाव प्रकट
होता है। दुःख भोगने योग्य है और सुख छोडने योग्य है, यह सम्यग्दर्शन का मर्म है। इस मर्म को समझने के लिए
सकल शिक्षण लेना यह सम्यग्ज्ञान है। सुख छोडकर दुःख भोगने के लिए तैयार हो जाना, यह सम्यकचारित्र है। इस चारित्र को
पालने के लिए जगत की सब वस्तुओं से निरीह हो जाना सम्यक तप है।
धर्म के इस मर्म को
समझने के बाद ही मोहाधीनता छोडकर, स्वाधीन जीवन जीने की भूमिका तैयार होती है। जो सुख में हर्षित नहीं होता और
दुःख में संतप्त नहीं होता,
वह
स्वाधीन जीवन जीने वाला कहा जाता है। यही धर्म का मर्म है।
शरीर और इन्द्रियों के
प्रति जब तक कठोरता का व्यवहार न किया जाए, तब तक कर्मों को धक्का लगता ही नहीं। शरीर को पंपोलने
वाला व्यक्ति वास्तविक धर्म नहीं कर सकता। शरीर की पूजा में से सब पाप पैदा होते
हैं। आजकल शरीर की गंदगी दूर करने के लिए आत्मा में गंदगी भरी जा रही है, यह कैसी मूर्खता है? भगवान शरीर के लिए कठोर थे, इसीलिए कर्मों के प्रति कठोर बन
सके। भगवान ने उपसर्गों और परीषहों को जिस प्रकार सहन किया, यह उक्त बात की साक्षी देता है।
जिसे मोक्ष में जाना है,
उसे
अनुकूलता छोडनी होगी, मोह छोडना होगा और
प्रतिकूलता को अपनाना होगा,
त्याग
मार्ग को अपनाना होगा।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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