रविवार, 6 मई 2012

साधु जीवन के इच्छुक बनो

आप अपने संतान, संबंधी, मित्र व आश्रितों का भला चाहते हैं। इस इच्छा से आप थोडा-बहुत प्रयत्न भी करते हैं, लेकिन क्या वह उचित और पर्याप्त है? इस भव में वे सभी सुखी हों, ऐसी आपको चिन्ता है,परन्तु परभव में उनका क्या होगा,यह चिन्ता है? उनकी आत्मा के कल्याण का विचार या प्रयत्न आपने किया है? ये यक्ष प्रश्न हैं,जिन पर आपको पूरी गम्भीरता और विवेक के साथ विचार करना चाहिए। वास्तविकता तो यह है कि आपको जब अपने ही कल्याण का विचार नहीं आता हो तो वहां दूसरों के कल्याण का तो विचार भी कहां से आए? यह स्थिति आप के जैनत्व के लिए लाँछनरूप है।
जैन कुल में जन्म लेने से सुदेव, सुगुरु और सुधर्म की सरलता से आराधना हो सकती है, ऐसी सामग्री आपको मिली है। यह सब मिलने पर भी यदि आप अपने जैनत्व का विचार न करें और सिर्फ जड के आकर्षण में ही फंसे रहें तो यह स्थिति आप के लिए अत्यंत शोचनीय है। आज जड के आकर्षण में लोग इतने अंधे हो गए हैं कि साधुओं की सेवा द्वारा भी आत्मसुख की इच्छा न रखकर दुनियावी सुख-सामग्री की ही इच्छा रखते हैं। धीरे-धीरे परिस्थिति इतनी बिगड रही है कि लोग सच्चे जैनत्व को भी भूलते जा रहे हैं। मात्र जैन कुल में जन्में इसलिए जैन, इस बात को भूलकर सच्चे जैन बनो, जड के योग से अपनी आत्मा को मुक्त बनाने के लिए तत्पर बनो। इसके लिए अनंतज्ञानी जिनेश्वर देव की आज्ञानुसार जीवन जीने के लिए प्रयत्नशील बनो। जड का योग ही दुःख का कारण होने से यथाशक्य जड वस्तुओं का त्याग करो और आत्मा के मूल स्वभाव का अभ्यास हो, ऐसा जीवन जीने के लिए प्रयत्नशील बनो। आत्मा का स्वभाव ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सर्वोच्च साधना साधु जीवन में ही शक्य है। श्रावक तो ऐसे जीवन के लिए तरसता है। साधु जीवन का प्रेम जगेगा, तभी श्री जिनेश्वर देव और उन तारकों की आज्ञानुसार जीवन जीने वाले सद्गुरुओं के प्रति वास्तविक भक्ति-भाव प्रकट होगा। तभी आप लोग सुदेव, सुगुरु और सुधर्म के सच्चे उपासक बन सकोगे। इसके बिना सच्चे जैनत्व की प्राप्ति नहीं होगी और यह भव भी व्यर्थ चला जाएगा।
संयम की भावना, यह तो जैन समाज में सामान्य बात होनी चाहिए। जैन संयम की भावना से रहित हो, यह कैसे हो सकता है? परन्तु आज तो संयम की बात भी कडवी लगती है, क्योंकि आप में जैनत्व रहा ही नहीं है। वृद्ध भी जिन्दगी के अंत समय तक असंयमित जीवन रखकर नई पीढी पर गलत छाप डाल रहे हैं। आज वातावरण इतना अधिक बिगड गया है कि कोई दुराचारी बन जाए तो किसी को परवाह नहीं है, परन्तु कोई साधु बन जाए तो अज्ञानी व्यक्ति भी संबंधी बनकर अनेक विघ्न खडे कर देता है। अनाचार से द्वेष के बजाय साधुता का द्वेष, यह बडे दुर्भाग्य की निशानी है। जैन समाज को यह शोभा नहीं देता है। जैन समाज में तो आत्म-सुख को ही प्रधानता होनी चाहिए। यदि सभी जैन सच्चे जैन बन जाएं तो अनेक आत्माएं जैन शासन की शरण पाकर अपना कल्याण कर सकती हैं। प्रत्येक गांव में 10-10 श्रावक भी सच्चे जैन बन जाएं तो एक दशक में जैन समाज का कायाकल्प हो सकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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