बुधवार, 9 मई 2012

धर्म जरूरी लगता है?

अनंत उपकारी,अनंतज्ञानी जिनेश्वर भगवंत फरमाते हैं कि दुर्लभ ऐसे मानव जन्म को पाकर यदि आप कल्याण चाहते हैं तो विषयोपभोग में जीवन को बर्बाद न कर धर्म की आराधना करनी चाहिए। मुक्ति की साधना के लिए मानव भव श्रेष्ठ भव है। मुक्ति की साधना का लक्ष्य न हो तो इस भव की कोई महत्ता, कोई कीमत नहीं है। देव गति में अमाप भोग सामग्री है, फिर भी ज्ञानियों ने मनुष्य भव को उत्तम कहा, क्योंकि देवता श्रद्धालु होने पर भी भोग का त्याग कर मुक्ति मार्ग की आराधना नहीं कर सकते हैं। भोग का त्याग और उत्कृष्ट संयम का पालन मनुष्य भव में ही संभव है। इतना होने पर भी आज मनुष्य भोग का अर्थी बनकर मुक्ति के ध्येय को भूल गया है। इस कारण भोग का त्याग व संयम का सेवन करने की सलाह रुचिकर नहीं लगती है। धन-दौलत तथा इन्द्रिय सुख की आवश्यकता लगती है, लेकिन देव-गुरु और धर्म की आवश्यकता नहीं लगती है।
मनुष्य अपनी बुद्धि का सदुपयोग करे तो श्रेष्ठ कोटि की साधना भी कर सकता है और बुद्धि का दुरुपयोग करे तो इस श्रेष्ठ भव में भी ऐसे पाप कर सकता है, जिनके फलस्वरूप उसे आगामी भव में नरक की भयंकर यातनाएं सहन करनी पड सकती हैं। इतना होने पर भी मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? कहां मुझे जाना है? मेरा कर्त्तव्य क्या है?’ इत्यादि सोचने के लिए समय ही कहां है? केवल धन-दौलत व इन्द्रिय सुखों की चिन्ता है, इसके लिए ही बुद्धि और शक्ति का व्यय होता है। लगभग पूरा समय इसी में बीत जाता है। धन-दौलत और इन्द्रिय सुख मिल जाए तो कई लोगों को देव-गुरु और धर्म की भी जरूरत नहीं है। देव-गुरु और धर्म की भी इन्द्रिय सुख पाने के लिए सेवा करते हैं।
दुनिया के लोग व्यापार आदि के लिए श्रम करते हैं,उसी प्रकार देव-गुरु और धर्म की सेवा के लिए श्रम करते हैं। दोनों के परिश्रम के मार्ग भले ही अलग हैं, दोनों का ध्येय तो एक ही है। उस ध्येय को बदलने की आवश्यकता है। मुझे धन, दौलत और इन्द्रिय सुख नहीं, बल्कि मुक्ति ही चाहिए’,यह ध्येय निश्चित हो जाए तो ज्ञानी की आज्ञानुसार देव-गुरु-धर्म की सेवा का परिश्रम सफल हो सकता है। परन्तु,आपको मुक्ति की इच्छा कहां है?‘ मुझे मुक्ति ही चाहिए ’, ऐसी इच्छा होती है? मुक्ति की इच्छा जगे तो भोगों के प्रति अरुचि और त्याग के प्रति रुचि पैदा हो। परन्तु, वास्तविकता तो यह है कि मनुष्य को दरिद्रता का दुःख खटकता है, किन्तु धर्महीनता खटकती नहीं है। माता-पिता ने अपने बच्चों को व्यावहारिक शिक्षण नहीं दिया हो तो वे बच्चे बडे होकर माता-पिता को दोष देते हैं और दुनिया भी उन मां-बाप को ठपका दिए बिना नहीं रहती, परन्तु माता-पिता ने बच्चों को धार्मिक शिक्षण नहीं दिया हो तो उन मां-बाप को दोष देने वाले कितने? व्यावहारिक शिक्षण के प्रति आज माता-पिता जितने जागरूक हैं, क्या धार्मिक शिक्षण के प्रति उतनी जागरूकता है? आपको जब तक धर्म की जरूरत नहीं लगेगी और धर्म का वास्तविक अर्थों में आचरण नहीं करेंगे, कल्याण संभव नहीं है और यह मानव जन्म सार्थक नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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