रविवार, 20 मई 2012

जीवन में श्वांस से भी अधिक महत्त्व धर्म का है


आपने धर्म को इतना बेकार कर दिया है कि धर्म आपकी पेढी में, हृदय में, जीवन में और घर में दिखता ही नहीं है। आप के बोलचाल में भी धर्म दिखता नहीं है। आप धर्म को अपना ऐसा साथी बना लीजिए और अपने को इतना प्रामाणिक बना लीजिए कि जब आप चलें तो लोगों को आप एक पुण्यशाली नजर आएं और उनको लगे कि सच ही, पाप और पुण्य का मेल नहीं हो सकता। याद रखिए, आप के संसार का कोई भी कार्य धर्म रहित नहीं होना चाहिए। आपकी दुकान पर आने वाले ग्राहक को भी आप पुण्यशाली लगें। कुछ पैसा बाकी भी रह गया हो तो भी विश्वास रहे कि आप के यहां से कहीं नहीं जाएगा। धर्म की आवश्यकता सिर्फ मन्दिर या उपाश्रय में ही नहीं, सर्वकाल और सर्वत्र है, सार्वभौमिक है। आप बाजार में हों या घर पर आपका आचरण दोनों जगह धार्मिक होना चाहिए, संसार की प्रत्येक क्रिया में भी धर्म का वास होना चाहिए। श्वांस लिए बिना एक भव का जीवन समाप्त होगा, परन्तु धर्म किए बिना यह भव तो बिगडेगा ही, कई और भव बिगडेंगे। इसलिए जीवन में श्वांस से भी बढकर धर्म की आवश्यकता है।

मृत्यु निश्चित है और यहां से मरकर अन्यत्र जाना भी निश्चित है, लेकिन भविष्य में क्या होगा, इस बात का पता नहीं। इस जीवन में आपका नसीब अच्छा होगा और चालाकी से गुनाह छिपा सके तो शायद सरकार से बच जाओगे, लेकिन कर्मसत्ता आपको कभी भी नहीं छोडेगी। कर्मसत्ता जब आपको उठा लेगी, तब ये बंगले यहीं रह जाएंगे। पहरेदार देखते रह जाएंगे। बंदूकधारी लोग होते हुए भी वे कुछ नहीं कर पाएंगे और आपको जाना पडेगा। आप जिन्हें अपना समझ रहे हैं, वे सारे स्वजन बडे-बडे आँसू बहाकर रह जाएंगे। मृत्यु के समय यह समझ आए, रोना पडे या रोते-रोते यह सब छोडकर जाना पडे, इससे तो अच्छा यह है कि आप पहले सावधान हो जाएं।

कुछ भी मेरा नहीं है, मैं सबसे पर हूं। ये सब बंधनरूप हैं और मुझे इनसे मुक्त होना है। इसलिए मुझे किसी का विरोधी नहीं होना है।ये सब विचार आपको आते हों तो समझिए कि धर्म जँच गया। यह होगा तो देव और गुरु के पास अलग ढंग से जाना होगा। देव के पास पाप स्वीकार करते हुए पश्चाताप पूर्वक जाना होगा। पूजा करते वक्त भी सोचोगे कि हे भगवन्! आप के अंग स्पर्श से मुझमें ऐसी शक्ति पैदा हो, जिससे मेरे जीवन में से पाप निकल जाए। ऐसा लगेगा कि गुरु के पास पाप-मुक्ति के लिए ही जाना है। गुरु यदि गृहस्थ जीवन के बारे में पूछे तो आपको दुःख होगा। गुरु तो गृह को आत्म-रोग का घर मानते हैं और योग्य आत्माओं को घरबार का त्याग करवाते हैं। उस वक्त आपका व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि, जिससे गुरु को भी अपनी जवाबदारी का अहसास हो। जीवन साफल्य का मूलाधार धर्म ही है', यह बात सभी को समझनी है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें