बुधवार, 16 मई 2012

पेट भरने के नाम पर पाप का सहारा

पाप सेवन में बुद्धिमत्ता नहीं है। पाप किए बिना पेट नहीं भरता है’, यह मान्यता भी गलत है। पुण्य हो तो पाप किए बिना ही मिल सकता है और पुण्य न हो तो पाप करने पर भी मिलने वाला नहीं है। आज पेट के नाम पर कितने पाप हो रहे हैं? अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को नुकसान नहीं पहुंचाना, इतना भी करने के लिए आप तैयार हैं? कई लोगों की तो नीयत इतनी खराब होती है कि उन्हें दूसरों का हडपने में ही आनंद आता है। दूसरों का भला न हो तो चलेगा, किन्तु दूसरों का बुरा तो न करें। ऐसा करने पर भी पेट भरने को तो मिलेगा ही।
लेकिन, नहीं! क्योंकि तृष्णा अमर्यादित है। चाहे जितना मिल जाए पेट नहीं भरता। तन की भूख मिट जाए, किन्तु मन की भूख नहीं मिटती। आदमी जीर्णशीर्ण हो जाए, पर तृष्णा जीर्ण नहीं होती। ऐसा जानने पर भी पाप करना, इसमें कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। सच यह है कि पेट भरने के लिए नहीं, अपितु पिटारा भरने के लिए पाप होते हैं। तृष्णा की अधीनता के कारण ही पाप होते हैं। इस तृष्णा का नाश धन की प्राप्ति से नहीं, संयम के राग से ही संभव है। आप के पास तो क्या समृद्धि है?पूर्व काल में अमाप सम्पत्ति को छोडकर अनेक भाग्यशालियों ने दीक्षा ली है। वे पुण्य पुरुष सुख-सम्पत्ति, समृद्धि, राजपाट सबको तुच्छ मानते थे और आप लोग उसी में मुग्ध बने हो,क्योंकि संयम का राग पैदा नहीं हुआ। आज आप तृष्णा के अधीन बनकर कौनसा पाप करने के लिए तैयार नहीं हो? कुत्ता हड्डी को चूसता है और उसके मुंह से खून निकलता है, परन्तु वह भ्रम के कारण अपना ही खून चाटने में आनंद पाता है, वैसी ही हालत तृष्णातुरों की है। भौतिक सुखों का मोह अपनी आत्मा को बर्बाद करने वाला है। अज्ञानी ही उन सुखों में मोहित होता है। जिन सुखों की प्राप्ति अपनी इच्छा के अधीन नहीं, प्राप्त सुख-सामग्री का भोग अपनी इच्छा के अधीन नहीं, प्राप्त सुख स्थिर रहेंगे, यह भी अपनी इच्छा के अधीन नहीं और अंत में उन सुखों को छोडकर जाना पडेगा। ऐसे सुखों के पीछे पागल बनकर धर्म को भूल जाना किसी तरह उचित नहीं है।
आपको जिनेश्वर परमात्मा की आज्ञा की आराधना का जो सुन्दर अवसर मिला है, यह मानव जीवन मिला है, उसे पौद्गलिक सुखों की तृष्णा के अधीन बनकर व्यर्थ मत गंवाईए। सर्वथा पाप का त्याग कर धर्ममय साधु जीवन जीने के लिए आप असमर्थ हैं तो कम से कम न्याय-नीति से जीवन जीएं, अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को दुःख न दें, निस्पृह बनकर दूसरों की मदद करें। सदाचारों का पालन करें। नित्य जिनपूजा और प्रत्याख्यान करें, सामायिक व स्वाध्याय करें, प्रतिक्रमण करें। पर्व-तिथि के दिनों में उपवास आदि तप करें, पौषध करें, इतना तो कर सकते हैं न? संयम की भावना पैदा करो तो यह सब संभव है। सर्वविरतिधर न बन सको तो देशविरतिधर बनो। देशविरतिधर न बन सको तो कम से कम समकिती बनो। जिनवचनों पर दृढ श्रद्धालु बनो।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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