मंगलवार, 8 मई 2012

धर्म का ध्येय

अनंतज्ञानी जिनेश्वर भगवंत फरमाते हैं कि समस्त सुखों का मूल धर्म है।परन्तु दुनिया के लोग सुबह उठते ही सोचते हैं कि आज कैसे कमाई करूं और क्या-क्या भोग करूं ?इस अर्थ-काम की चिन्ता के कारण धर्म-प्रवृत्ति तो नहींवत् होती है। चूँकि लोगों ने देह के सुख में ही सुख मान लिया है, भौतिक पदार्थों, पौद्गलिक चीजों में ही सुख मान लिया है; आत्मकल्याण की चिन्ता करने वाले बहुत थोडे हैं,इसलिए ऐसी बात सोचने वाले तो विरले ही होते हैं कि आज मुझे कौनसे पाप नहीं करने हैं और कौनसा धर्माचरण करना है या कौनसे त्याग-पचक्खाण करने हैं।क्योंकि सभी को बाह्य सुख की ही इच्छा है, इस कारण आत्मा की चिन्ता करने वाले विरले ही हैं। आत्मकल्याण की बातें करने वालों में से भी आत्मकल्याण के यथार्थ स्वरूप को समझने वाले तो और भी बहुत थोडे ही हैं।
धर्म से कल्याण और पाप से अकल्याण’, इस प्रकार बोलने वालों में से भी ऐसे बहुत से लोग हैं, जो पाप करने में कमी नहीं रखते हैं और वास्तविक धर्म का आचरण ही नहीं करते हैं। कई लोग धर्म करते हैं तो दुनियावी लालसाओं के अधीन बनकर। अर्थ और काम की प्राप्ति के ध्येय से धर्म का आचरण करने वाले एक अपेक्षा से पाप को ही बढा रहे हैं, क्योंकि धर्म का सच्चा ध्येय अर्थ-काम को बढाने का नहीं है, बल्कि अर्थ-काम की आसक्ति से मुक्त होने का है। अर्थ-काम की वासना पाप वासना है और अर्थ-काम के लिए प्रयत्न पाप प्रयत्न है। यह बात समझ में आए तो अर्थ-काम के लिए किए धर्म से पाप का बंध कैसे होता है, यह समझ में आ सकता है।
धर्म करने से अच्छा फल मिलता है, परन्तु इस प्रकार किए गए धर्म से उपार्जित पुण्य, आत्मा को बरबाद कर दे तो भी कोई आश्चर्य नहीं होगा। अतः धर्म के सच्चे ध्येय को समझकर ही धर्म करना चाहिए, जिससे पाप की संभावना न रहे और आत्मसुख की अवश्य प्राप्ति हो। धर्म के योग से दुनियावी सुख नहीं मिलते हैं, ऐसा नहीं है। धर्म से दुनियावी सुख भी मिलते हैं, अपार ऋद्धि-सिद्धि भी मिलती है, लेकिन वह धर्म को धर्म के नियम के अनुसार करे तो ही संसार में उत्तम कोटि के सुख भी मिलते हैं और परिणामतः मोक्ष सुख की भी प्राप्ति होती है।
पाप से सुख नहीं मिलता है’, यह निश्चित बात है। यदि पाप से सुख मिलता तो ज्ञानी महापुरुष पाप छोडने और धर्म के सेवन का उपदेश देते भी नहीं। इस भव में पाप करने पर भी कहीं दुनियावी भोग-सामग्री की प्राप्ति देखी जाती है, वह पूर्व भव के पुण्योदय का फल है। पूर्व के पुण्य का उदय न होता तो कितना ही पाप करने पर भी भोग-सामग्री नहीं मिलती। पाप के कारण भविष्य में दुःख की ही अभिवृद्धि होती है। पाप करने पर भी इस जन्म में पूर्व के पुण्योदय से भोग-सामग्री भले ही मिल जाए, लेकिन अंततोगत्वा उस पाप के फल स्वरूप भविष्य में तो दुःख बढने ही वाला है, अतः सुख-शान्ति के लिए अर्थ-काम की वासना को छोडकर धर्म करना, यही श्रेष्ठ उपाय है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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