सोमवार, 10 मार्च 2014

सम्यग्दृष्टि किसकी प्रशंसा करे?


श्री सर्वज्ञ परमात्मा के कहे हुए वचन, उन वचनों द्वारा प्ररूपित सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र रूप रत्नत्रयी; श्री अरिहंत परमात्मा, श्री सिद्ध परमात्मा, श्री अरिहंत परमात्मा की आज्ञानुसार चलने वाले श्री आचार्य भगवान, श्री उपाध्याय भगवान, श्री साधु भगवान, श्री साध्वीजी भगवान, श्रावक-श्राविका और मोक्षमार्ग के सन्मुख हुई आत्माओं के सिवाय इस दुनिया में कोई भी अन्य वस्तु वस्तुतः प्रशंसा-पात्र नहीं है।

भगवान श्री जिनेश्वर देव के शासन को प्राप्त आत्मा यदि प्रशंसा करे तो इतनों की ही करती है; इनके अतिरिक्त की प्रशंसा नहीं करती। जैसे रत्नत्रयी में रत्नत्रयी के धारक आदि आत्माओं का समावेश हो जाता है, वैसे रत्नत्रयी को प्राप्त कराने वाली के रूप में ज्ञानियों द्वारा विहित सब सामग्री का भी उसमें समावेश हो जाता है। अर्थात् रत्नत्रयी को प्राप्त कराने वाली सामग्री भी प्रशंसा पात्र है।

श्री वीतराग देव का अनुयायी हर किसी की प्रशंसा नहीं करता। श्री वीतराग परमात्मा का अनुयायी उन्हीं आत्माओं की प्रशंसा करता है, जो सिद्ध हों अथवा सिद्ध होने की तैयारी में हों, सिद्ध होने के लिए प्रयत्नशील हों, तथा जो सिद्ध होने के साधन को बताने वाली हों या साधन का सेवन करने वाली हों अथवा उस साधन की अभिलाषी हों या उसके सन्मुख होने की दशा को प्राप्त हों। जहां श्री वीतराग शासन की छाया न हो, वहां श्री वीतराग प्रभु के अनुयायी की प्रशंसा नहीं हो सकती। सम्यग्दृष्टि आत्माओं के लिए यह छाप होती है कि वे हर किसी की इस तरह की प्रशंसा नहीं करती। प्रशंसा करने में भी वे विवेक रखती हैं।

प्रशंसा में तीन बातें होती हैं। गुण की अनुमोदना, अन्य जीवों को गुणी का परिचय और इसके द्वारा अन्य जीवों में गुणों की रुचि उत्पन्न होती है। जिसमें वास्तविक कोटि के गुण की अनुमोदना नहीं होती और जो प्रशंसा अन्य जीवों में गुणी तथा गुण के प्रति सम्मान उत्पन्न करने वाली नहीं होती, वह प्रशंसा स्व-परहित की साधक होने के बदले स्व-परहित की बाधक बनती है। गुण कौन से? यह भूलिए नहीं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र, ये तीन गुण हैं।

इन तीन गुणों को प्राप्त करनेवाली, विकसित करने वाली और इनके प्रति अभिरुचि उत्पन्न करने वाली आत्मा की प्रशंसा होनी चाहिए। इनसे भिन्न की प्रशंसा अर्थात् इनसे भिन्न प्रकार के परिणाम पैदा करने वाली प्रशंसा, उन्मार्ग को पुष्ट बनाने वाली होती है। इससे यह समझना चाहिए कि श्री वीतराग-शासन को प्राप्त आत्मा की प्रशंसा भी स्व-पर के अवगुणों को टालने और वास्तविक कोटि के गुणों को पैदा करने का उत्तम साधन है। इसका विवेकहीन यथेष्ट उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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