मंगलवार, 11 मार्च 2014

प्रशंसा और चापलूसी


जो आत्माएं गुण-अवगुण की वृद्धि का ध्यान रखे बिना प्रशंसा करती हैं, वे वस्तुतः प्रशंसा नहीं करती, अपितु भाटगीरी (चापलूसी) करती हैं। चापलूसी तीन घोर घृणित दुर्गुणों से बनी है- असत्य, दासत्व और विश्वासघात! ऐसी चापलूसी करने वाले जैसे अपनी आत्मा को डुबोते हैं, वैसे अन्य को भी डुबोने वाले बनते हैं। स्वयं को अच्छा कहलाने के लिए चाहे जिसकी, चाहे जैसी प्रशंसा करने वाले स्व-पर के हित के घातक होते हैं।

प्रशंसा करने का एक मात्र हेतु गुणों की प्राप्ति करना, गुणों की प्राप्ति कराना और प्राप्त गुणों को विकसित करना होता है। आजकल गुण प्रशंसा के नाम पर भी जगत में भारी अनर्थ चल रहा है। गुण किसे कहें? अवगुण किसे कहें? इसका वास्तविक ध्यान न रखने वाली आत्मा, आज गुणी आत्माओें की प्रशंसा से विमुख हो गई है और गुणाभासों की प्रशंसा में तल्लीन बन गई है। जो आत्मा विवेकपूर्वक आत्मा के हित की दृष्टि से विचार करती है, उसे तो इस स्थिति का सच्चा भान हो सकता है और तो ही वह ऐसी स्व-परहित घातक प्रवृत्ति से बच सकती है।

प्रशंसा करते हुए मिथ्यामत की पुष्टि न हो, यह ध्यान रखना चाहिए। इसलिए किसी की प्रशंसा सुनकर प्रभावित होने से पहले जरा रुकना! देखना कि वह प्रशंसा, प्रशंसा के योग्य है या नहीं? और प्रशंसा के योग्य भी हो तो वह योग्य रूप में है या नहीं? जिसकी वह प्रशंसा करता है, उसमें वास्तविक कोटि के गुण हैं या नहीं?

सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र, ये तीनों आत्मा के गुण हैं। यही मोक्षमार्ग है। ये प्रकट हों तो आत्मा तीर्थरूप बन जाती है। इन तीनों का वास्तविक ज्ञान हो जाना चाहिए। इन तीनों का ज्ञान हो जाए और इन तीन की प्राप्ति के लिए तीर्थयात्रा हो तो अनुपम लाभ होता है। इस बात का ज्ञान हो जाने पर बहुत मेहनत नहीं करनी पडती। क्योंकि एक सम्यक्त्व गुण के प्रकट होने पर आत्मा स्वयमेव तीनों को एक साथ पाने के लिए उत्सुक बन जाता है। इनकी प्रशंसा और अनुमोदना होनी चाहिए, इससे और लोगों को प्रेरणा मिलती है और जिनमें ये गुण प्रकट हुए हैं, उनका इनके प्रति विश्वास दृढ बनता है। जिनमें मोक्ष की और मोक्षमार्ग की श्रद्धा न हो और धर्म के तत्त्वों के स्वरूप से विमुख होकर, धर्म के नाम पर अधर्म की प्रवृत्ति में लोगों को लगा रहे हों, वे व्यक्ति किसी भी स्थान पर हों या किसी भी स्थिति में हों तो भी वे श्री वीतराग परमात्मा के अनुयायी के लिए प्रशंसा पात्र नहीं हैं। जिसकी प्रशंसा से सच्चे गुणियों के प्रति जगत के जीव उपेक्षा करने वाले बनें, उसकी प्रशंसा तारने वाली नहीं, अपितु डुबोने वाली है। योग्य की भी प्रशंसा करते हुए यह ध्यान रखना चाहिए कि वह किसी प्रकार मिथ्यात्व की पुष्टि करने वाली न हो।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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