मेरू जितने सुकृत को भी, उसके रस के अभाव से या उससे विपरीत कोटि
के रस के सद्भाव से उसके प्रति होने वाली स्पष्ट या अस्पष्ट अरुचि से और दुष्कृत्य
को उसके रस के अभाव से या उससे विपरीत कोटि के रस के सद्भाव से, उसके
प्रति होने वाले स्पष्ट या अस्पष्ट अरुचि और उसकी निंदा से अणु जितना बना दिया जा
सकता है।
आप शायद यह तो जानते होंगे कि मिथ्यादृष्टि जीव को किसी पाप के आचरण से जितना
पाप का बंध होता है,
उसी पाप का आचरण करने वाले सम्यग्दृष्टि जीव को उससे कम ही
पाप का बंध होता है। ऐसा होने का कारण क्या है? मिथ्यादृष्टि जीव की अपेक्षा
सम्यग्दृष्टि जीव को अल्प बंध होता है, ऐसा जो शास्त्रकार महात्माओं
ने कहा है, क्या वह पक्षपात के कारण कहा है? क्या सम्यग्दृष्टि जीवों के
प्रति राग और मिथ्यादृष्टि जीवों के प्रति द्वेष होने से ऐसा कहा है? नहीं!
यदि ऐसा नहीं है,
तो फिर ऐसा कहने के पीछे वास्तविक हेतु होना चाहिए न? शास्त्रकार
महात्माओं ने ऐसा जिस हेतु से कहा है, उसे ही खास तौर से लक्ष्य में
रखना आवश्यक है।
सम्यग्दृष्टि जीव वस्तुतः पाप का रागी नहीं होता, अपितु
पाप के त्याग का रागी होता है। पाप के प्रति उसे अरुचि होती है और पाप का त्याग
उसे रुचिकर लगता है। पाप के प्रति अरुचि और पाप-त्याग के प्रति रुचि होते हुए भी
सम्यग्दृष्टि जीव को तथाविध कर्मोदयजनित संयोगों के कारण पाप करना पडता हो, यह
संभव है। जब पाप के प्रति अरुचि हो और पाप करना पडता हो तो उस जीव के मन में कैसा
भाव होता है?
एक तो ऐसा भाव होता है कि पाप करना पडे तो भी यथाशक्ति उसे
कम करना और दूसरा भाव यह होता है कि जो पाप करना पडता है, उसे
पाप के रस से तो नहीं ही करना।
अर्थात् पाप करने के परिणामों को कठोर बनाकर नहीं करना! सम्यग्दृष्टि जीव में
ये दोनों भाव होते हैं और इसीलिए सम्यग्दृष्टि जीव पाप से अलग रहने का प्रयत्न
करता है। अतः उस सम्यग्दृष्टि जीव के लिए कहा जाता है कि वह किंचित पाप का आचरण
करता है और उसका जो पापबंध होता है, वह अल्प ही होता है। श्री
वंदिता सूत्र में ‘सम्मदिट्ठी जीवो’,
ऐसी जो छत्तीसवीं गाथा है, उसमें यह बात कही गई
है। आपने तो वह गाथा बहुत बार सुनी है न? कइयों को यह गाथा कंठस्थ भी
होगी! कई इस गाथा का अर्थ भी जानते होंगे! इस गाथा का भाव यदि हृदय में बैठ जाए तो
पाप के आचरण में और उस समय के परिणामों में अंतर पडे बिना रह सकता है क्या? संसार
में बैठे हैं,
इसलिए पाप करना पड रहा है, इसका पश्चात्ताप होता
है तो उस पाप का बंध गाढ नहीं होता।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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