रविवार, 9 मार्च 2014

सम्यग्दर्शन गुण की प्रधानता


सम्यग्दर्शन गुण आत्मा की मुक्ति को साधने का मूलभूत गुण है। मुक्ति के मार्ग को बताते हुए पूज्यपाद पूर्वधर आचार्य भगवान श्रीमद् उमास्वातिजी महाराज ने श्री तत्त्वार्थ सूत्र की रचना करते हुए सर्वप्रथम सूत्र रखा है, ‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र यह मोक्षमार्ग है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र में सम्यग्दर्शन को प्रथम स्थान देने का कारण यह है कि सम्यग्दर्शन के अभाव में जो ज्ञान होता है, वह सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता और सम्यग्ज्ञान के बिना जो चारित्र होता है, वह भी सम्यकचारित्र नहीं हो सकता। सम्यग्दर्शन के अभाव में जितना ज्ञान है, वह अज्ञान या मिथ्याज्ञान है, और सम्यग्ज्ञान के अभाव में जितना चारित्र है, वह कायकष्ट है अथवा जीव को संसार में भटकाने वाला मिथ्या चारित्र है। इस चारित्र में सर्व सत्कर्मों का समावेश हो जाता है, अतः दुनिया में मानी जाने वाली सत्क्रिया वस्तुतः सत्क्रिया है या नहीं अथवा वह जीव के मोक्ष में कारणरूप बन सकती है या नहीं, यह निर्णय करने के लिए सम्यग्दर्शन-गुण है या नहीं’, यह देखना पडता है।

सम्यग्दर्शन गुण अध्यात्मभाव के प्रादुर्भाव के बिना प्रकट नहीं हो सकता। जीव को जहां तक विषय जनित सुख और कषाय जनित सुख वस्तुतः सुख नहीं, अपितु सुखाभास मात्र है और वास्तविक सुख तो आत्मा में ही रहा हुआ है’, ऐसा नहीं लगता, वहां तक सम्यग्दर्शन गुण प्रकट नहीं हो सकता। जिसमें सम्यग्दर्शन गुण प्रकट होता है, उसमें मोक्ष की अभिलाषा तो होती ही है। मोक्ष की अभिलाषा की विरोधी जितनी अभिलाषाएं हैं, वे उसे त्यागने योग्य लगती हैं, क्योंकि वे अभिलाषाएं उसे पाप की कारणरूप लगती हैं। मोक्ष की अभिलाषा के साथ, सम्यग्दृष्टि जीव में भगवान श्री जिनेश्वर देवों ने जो मार्ग बताया है, उसी मार्ग के सेवन की अभिलाषा भी होती है; इस मार्ग से प्रतिकूल सब व्यवहार उसे पापरूप लगते हैं। उसे अपनी देह पर ममत्व भी पापरूप लगता है तो कुटुम्ब, गांव, जिला, देश आदि का ममत्व भाव तो आदरणीय लग ही कैसे सकता है? उसका परम लक्ष्य अपनी और अन्य की आत्मोन्नति होता है, परंतु किसी की भी पौद्गलिक उन्नति का नहीं होता।

देव-गुरु-धर्म की उपासना में वह अपना हित मानता है और देव-गुरु-धर्म के स्वरूप का ही वह उपासक होता है। दुनिया में देव के रूप में माने और पूजे जानेवाले देवों में से श्री वीतराग और सर्वज्ञ के सिवाय सब देवों को कुदेव मानता है; श्री वीतराग और सर्वज्ञ देव के द्वारा कथित मोक्षमार्ग की ही एकांत उपासना करने वाले निर्ग्रंथ मुनियों के सिवाय अन्य सब त्यागियों को कुगुरु मानता है। इसी तरह जिन धर्मों की श्री वीतराग एवं सर्वज्ञ भगवान ने स्वतंत्ररूप से प्ररूपणा नहीं की, ऐसे धर्मों को वह कुधर्म मानता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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