जगत के अज्ञानी जीव विपत्ति आने पर रोते हैं, मां-बाप को याद करते
हैं और भाग्य को कोसते हैं। परंतु श्री जिनेश्वर देव तो कहते हैं कि अशुभोदय के
समय में मां-बाप आदि कुछ नहीं कर सकते। यदि बहुत स्नेहशील मां-बाप होंगे तो पास
में बैठकर रोएंगे और दुःख में अधिक वृद्धि करेंगे। विपत्ति आने पर भाग्य को कोसना
भी निरर्थक है। क्योंकि उस प्रकार के भाग्य का सर्जन किया किसने? जीव
ने स्वयं ही किया या किसी दूसरे ने? पाप बांधने वाली भी आत्मा
स्वयं ही है?
स्वयं के बांधे हुए पाप के उदय में आने पर दूसरों पर दोषारोपण
करने वाला चतुर या मूर्ख?
चतुर आत्मा तो उदय में आए हुए पाप को भोगते समय दुःखी आत्मा से कहती है कि
महानुभाव! स्वयं किए हुए कर्म के उदय से आई हुई विपत्ति को अच्छी तरह सहन कर लेना
चाहिए। क्योंकि,
स्वयंकृत कर्म के उदय से आई हुई विपत्ति हंसकर सहोगे तो भी
सहनी पडेगी और रोकर सहोगे तो भी सहनी पडेगी। अतः इस विपत्ति को इस प्रकार सहन करना
चाहिए ताकि अशुभ कर्म चले जाएं और नए अशुभ कर्म न बंधें।
विपत्ति को इस प्रकार सहना चाहिए कि एक विपत्ति अनेक विपत्तियों को टालने की
प्रक्रिया में कारणभूत बन जाए। विपत्ति को इस तरह तो नहीं ही सहना चाहिए कि उससे
दूसरी अनेक विपत्तियां खडी हो जाए।
आजकल तो एक तकलीफ को मिटाने के लिए सैकडों पापों को बढाया जा रहा है, जिससे
भविष्य में तकलीफों की संख्या बढती ही जाए। प्रभु के शासन को पाने के बाद भी यदि
ऐसी दशा कायम रहे तो कहना चाहिए कि ‘शासन जिस रूप में जीवन में
परिणत होना चाहिए,
उस रूप में परिणत नहीं हुआ।’ अनंत ज्ञानियों के कथन
के अनुसार यह बात अनुभव-सिद्ध ही है कि दुनिया के जीव तो कर्म के हाथ जोडकर खडे
रहते हैं, परंतु सम्यग्दृष्टि आत्मा को तो कभी भी कर्म के हाथ नहीं जोडने चाहिए। जबकि आप
तो उसके सामने गुलाम जैसा व्यवहार करते हैं। आपको समझ लेना चाहिए कि कर्म हंसाए तो
हंसना और रुलाए तो रोना तथा जैसा नचाए वैसे नाचना, यह सम्यग्दृष्टि आत्मा
के लिए शोभनीय काम नहीं है।
सम्यग्दृष्टि आत्मा शुभोदय में भी लीन नहीं होती, क्योंकि
लक्ष्मी आदि को अस्थिर,
असार और आत्मा का अहित करने वाली समझती है। इसी तरह
सम्यग्दृष्टि आत्मा अशुभ के उदय से विपत्ति आने पर उसे शांतिपूर्वक सहन करती है और
अशुभ कर्म को कह देती है कि ‘आ जाओ और हिसाब चुका लो’।
सम्यग्दृष्टि आत्मा पौद्गलिक कारण से जान-बूझकर कोई विपत्ति खडी नहीं करती, परंतु
कल्याण की साधना में विपत्तियां आ पडें तो घबराती नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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