गुरुवार, 6 मार्च 2014

पांच मुद्दे : पांच सवाल


लोकतंत्र के महापर्व का आगाज आज 16वीं लोकसभा के लिए चुनाव कार्यक्रम घोषित कर चुनाव आयोग ने कर दिया है। सत्ताधारी दल पर विपक्ष मुख्य रूप से पांच मुद्दों को लेकर लगातार हमले कर रहा है। इस समय मुख्य विपक्षी दल भाजपा है, जिसकी ओर से आगामी लोकसभा में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्रभाई मोदी हैं। वे अब तक देशभर में कई रैलियां और विशाल जनसभाएं कर चुके हैं। वे अपनी सभाओं में पांच मुद्दे ही सर्वाधिक जोर-शोर से उठाते हैं। ये पांच मुद्दे हैं- मंहगाई, भ्रष्टाचार, युवा-शक्ति, आपसी भाईचारा-सद्भाव और विकास; लेकिन इन पांचों मुद्दों पर पांच सवाल हैं-1. यदि भाजपा या उनका एनडीए सत्ता में आता है तो क्या वे मंहगाई को सस्ताई में बदल देंगे? क्या भाजपा नित एनडीए की दस वर्ष पूर्व जो सरकार थी, उसमें मंहगाई नहीं बढी? देश की जनता को लूटने वाले उद्योगपति जिस प्रकार नेताओं और अधिकारियों के साथ मिलीभगत कर मंहगाई बढाने का दुष्कर्म करते हैं, क्या भाजपा उस दुष्कर्म के खिलाफ खडी होकर आम आदमी को राहत देगी? अथवा मंहगाई को कम करने का नरेन्द्रभाई मोदी के पास कोई नायाब फोर्मूला है? इसमें भाजपा शासित प्रदेशों पर भी कई सवाल बनते हैं, क्योंकि बहुत सारी चीजें ऐसी हैं, जिनमें राज्य सरकारें भी राहत दे सकती हैं, चाहे वह बिजली-पानी का मामला हो या शिक्षा व चिकित्सा का; तो उनकी भाजपा शासित राज्य सरकारों ने इस दिशा में कुछ किया है या इन विभागों में उन्होंने भी तकलीफें ही बढाई हैं?

दूसरा मुद्दा है भ्रष्टाचार! क्या भाजपा सत्ता में आई तो भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा? क्या भाजपा में कोई भ्रष्ट नेता नहीं है? दस वर्ष पूर्व पांच साल जब एनडीए का शासन रहा, क्या उसमें कोई भ्रष्टाचार नहीं हुआ? इस समय जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं, क्या वहां भ्रष्टाचार नहीं है? और अब तक भ्रष्टाचार मिटाने के लिए आपने कौनसे कारगर उपाय किए हैं?

तीसरा मुद्दा है युवा-शक्ति का! नरेन्द्रभाई मोदी अपनी हर जनसभा में युवा भारत का जिक्र कर रहे हैं, किन्तु भाजपा शासित प्रदेशों में ही युवाओं का सर्वाधिक शोषण हो रहा है। एक आठवीं पास चपरासी से कम वेतन है एक व्याख्याता का। एक क्लीनर (सफाई कर्मी) से कम वेतन है एक डॉक्टर, जिला कार्यक्रम अधिकारी, काउंसलर, नर्स व लेब टेक्नीशियन का। एक दिहाडी मजदूर से कम वेतन है डाटा ऑपरेटर व अकाउन्टेंट का। कारण यह है कि एक स्थाई राजकीय कर्मचारी है और दूसरा संविदा पर, यानी सरकार की और अफसरों की मेहरबानी से ठेके पर काम करने वाला। स्त्री का जैसे देवी कहकर दासी की तरह इस्तेमाल किया जाता है, वैसी ही हालत संविदाकर्मियों की है। बेरोजगारी का सबसे ज्यादा लाभ कोई उठा रहा है तो वह है कल्याणकारी राज्य का दावा करने वाली सरकारें। स्थाई कर्मचारियों की तुलना में संविदा पर रखे गए कर्मचारियों से चार गुना अधिक काम लेकर चौथाई वेतन देना और इस बात का दावा करना कि इतने लोगों को रोजगार दिया जा रहा है। शोषण की यह त्रासदी बहुत भयावह है। अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढाना तो दूर का सपना है, संविदाकर्मी दो वक्त का भोजन भी ठीक से न कर सकें इतनी ही उनकी तनख्वाह है।

नई भर्तियां रोक दी गईं। सेवा निवृत्ति की आयु पहले 55 साल थी। कर्मचारी रिटायर होता, नौजवान को मौका मिलता। कर्मचारी चूंकि मरते दम तक कुर्सी छोडना नहीं चाहता, इसलिए चालाकी से उसने अपनी सेवा निवृत्ति की आयु बढवा ली। अब वह 65 साल करवाने की जोडतोड में लगा है। इस बीच मर जाएंगे तो बच्चे को अनुकम्पा नौकरी मिल जाएगी, कब्जा बना रहेगा। अपनी वेतन वृद्धियां भी नेता और कर्मचारी आराम से करवा लेते हैं, क्योंकि मंहगाई सिर्फ उन्हीं को सताती है।

नेताओं और कर्मचारियों ने सरकार को इतना दिवालिया कर दिया कि पद रिक्त होने के बावजूद जहां-जहां और जितना नई भर्तियों को टाल सकती थी टालती रही। अब जब सरकारी काम और सरकार लडखडाने लगे तो इन्होंने शोषण का नया फण्डा तैयार किया, जिसने दुष्टता की, निर्दयता की शोषण की सारी हदें लांघ दी है। पिछले 8-10 वर्षों में सरकार ने गैर सरकारी संगठनों के पेटर्न पर संस्थाएं बनाकर काम शुरू किया। जैसे नाको, एड्स कंट्रोल सोसायटी, एनआरएचएम, आदि-आदि। इसमें ऊपर के स्तर पर कुछ सरकारी अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर बैठ गए और नीचे के स्तर पर संविदा के आधार पर मामूली वेतन पर कर्मचारी रखे जाते हैं। अफसर मजे कर रहे हैं, नेताओं को कमीशन देकर घोटाले भी कर रहे हैं, विदेश यात्राएं भी कर रहे हैं और उनकी वेतन वृद्धियां तो रूटीन में हो ही रही हैं। नीचे संविदाकर्मियों की तरफ देखने की जरूरत ही नहीं, चां-चूं करेंगे तो नौकरी से निकाल देंगे। पिछले कई वर्षों से स्थाई कर्मचारियों के वेतन में हर छः माह में मंहगाई भत्ते के रूप में अच्छी खासी बढोतरी होती रही है, किन्तु क्या यह मंहगाई केवल स्थाई कर्मचारियों के लिए ही बढती है? इस मंहगाई से क्या केवल उनके बच्चे ही भूखे मरते हैं? आम आदमी व संविदाकर्मियों की हालत का सरकार ने क्यों कभी विचार नहीं किया? क्या असंगठित व्यक्ति को मानवीय गरिमा से जीने का, अपनी उदरपूर्ति का, अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने का अधिकार नहीं है? कैसी है यह दुष्ट मनोवृत्ति? क्या इसी युवा शक्ति कि दुहाई नरेन्द्रभाई मोदी दे रहे हैं? वे क्या करने वाले हैं?

सरकार ने बेरोजगार युवकों की हालत तो ऐसी की है कि रिक्तियों में आवेदन के लिए प्रार्थनापत्र के लिए एक हजार से पांच हजार आवेदन शुल्क मांगा जा रहा है। राजस्थान स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय द्वारा आवेदन पत्रों के लिए पांच-पांच हजार रुपये लिए गए। अन्य विश्वविद्यालयों में भी आवेदन-पत्रों के एक-एक हजार रुपये लिए जा रहे हैं। बेरोजगार युवकों के साथ इससे बडा भद्दा मजाक और क्या हो सकता है?

चौथा मुद्दा है आपसी भाईचारा-सद्भाव! घृणा की राजनीति में समरसता कहां है? क्या नरेन्द्रभाई मोदी यह बात दावे के साथ कह सकते हैं कि वे अपने भाषणों में कांग्रेस, सोनिया, राहुल और तीसरे मोर्चे के लिए जिस प्रकार की शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं और अन्य भाजपाई जिस प्रकार आम आदमी पार्टी और उनके नेताओं पर कटाक्ष व प्रताडना करने में जिस प्रकार की शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं, वह घृणा और वितृष्णा, नफरत और हिकारत की शब्दावली नहीं है और ऐसी भाषा समाज में समरसता पैदा करेगी?

पांचवां मुद्दा है विकास; लेकिन विकास किसका? उद्योगपतियों और पूँजीपतियों का या आम आदमी का विकास? निजीकरण से किसको लाभ हुआ और हो रहा है?

यदि इन सब सवालों के जवाब नकारात्मक हैं तो आम आदमी भाजपा को वोट क्यों दे और जिन मुद्दों का समाधान आप भी नहीं कर सकते उनके लिए आप किसी को घेरने का नैतिक अधिकार कैसे रखते हैं?

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