सोमवार, 17 मार्च 2014

सर्व-गुण का मूल सम्यग्दर्शन


सम्यग्दर्शन सब गुणों का मूल है। सम्यग्दर्शन के बिना गुण भी सहीरूप में गुण की कोटि में नहीं आते। इसी कारण उपकारी कहते हैं कि यम और प्रशम को जीवन देने वाला सम्यग्दर्शन है, ज्ञान और चारित्र का बीज सम्यग्दर्शन है, तप तथा श्रुत आदि का हेतु भी सम्यग्दर्शन है।अनंतज्ञानियों ने ऐसा कहा है कि चारित्र और ज्ञानरहित भी दर्शन श्लाघ्य है, परंतु मिथ्यात्व से दूषित ज्ञान एवं चारित्र श्लाघ्य नहीं है। ज्ञान और चारित्र से हीन श्रेणिक महाराजा सचमुच सम्यग्दर्शन के महात्म्य से तीर्थंकर पद को प्राप्त करेंगे। चारित्र और ज्ञान न रखने वाले प्राणी भी सम्यग्दर्शन के प्रभाव से असीम सुख के निधानरूप मोक्ष को प्राप्त करते हैं। यह सम्यग्दर्शन संसार-सागर से पार होने के लिए पोत (जहाज) के समान है तथा दुःखरूपी कांतार को जलाने के लिए दावानल के समान है। ऐसे सम्यग्दर्शन नामक रत्न का आश्रय लो।

सम्यग्दर्शन की महिमा सच्चे मुमुक्षुओं को मुग्ध बनाने वाली है। क्योंकि, सच्चे मुमुक्षु यम, प्रशम, ज्ञान और चारित्र के अनुपम अभिलाषी होते हैं। जीवन में प्राप्त हुए यम और प्रशम को जीवित रखने के लिए सम्यग्दर्शन की अनिवार्य आवश्यकता है। सम्यग्दर्शन रहित यम या प्रशम वास्तविक नहीं होते। जो यम-प्रशम सम्यक्त्व की प्राप्ति में कारणभूत नहीं होते, वे तो एक प्रकार से शत्रु के समान ही होते हैं। घोर मिथ्यादृष्टियों के यम और प्रशम भी एक तरह से मोह के ही प्रतिनिधि होते हैं। इन्द्रियों पर नियंत्रण करने वाला यम और कषायों को रोकने वाला प्रशम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति वाले अथवा सम्यग्दर्शन की सन्मुख दशा वाले आत्माओं में ही सच्चे स्वरूप में होते हैं। इससे भिन्न जाति के आत्मा तो यम और प्रशम के नाम से भी मोह की ही उपासना करने वाले होते हैं। यम और प्रशम के नाम से मोहाधीन दशा भोगने वाले पामरों का ज्ञान भी अज्ञानरूप ही होता है। ऐसे व्यक्तियों का घोर चारित्र भी कर्मक्षय में हेतुभूत नहीं होता। ऐसे लोग मिथ्याश्रुत में ही मस्त रहने के कारण उनका उग्र तप भी कायकष्टरूप ही होता है; वह आत्मा पर लगे हुए और आत्मा के स्वरूप को आच्छादित करने वाले कर्मसमूह को सहजरूप से तपानेवाला नहीं होता।

सम्यग्दर्शन की महिमा को सुनकर मुमुक्षु यम या प्रशम के प्रति, ज्ञान या चारित्र के प्रति, तप या श्रुत आदि के प्रति उपेक्षा करने वाले नहीं बनते, अपितु उद्यमवंत बनते हैं। यम-प्रशम की जीवातु अर्थात् जीवनदाता औषधि को, सम्यग्दर्शन को पाकर यम-प्रशम के अनभिलाषी बनें, यह संभव ही नहीं है। ज्ञान और चारित्र के बीज को पाकर भी ज्ञान और चारित्र प्राप्त करने की तीव्र लालसा न पैदा हो, यह भी संभव नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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