रविवार, 16 मार्च 2014

सम्यग्दर्शन रत्नदीप है!


सम्यग्दर्शन रत्नदीप है!

प्रथम के पांच परमेष्ठिपदों में विराजमान श्री अरिहंतदेव, श्री सिद्ध परमात्मा, श्री आचार्य भगवान, श्री उपाध्याय भगवान और श्री साधु भगवंतों का ध्यान करने का उपदेश देने के पश्चात जिसके द्वारा परमेष्ठि पद पर पहुंचा जा सकता है, उन सम्यग्दर्शन आदि चारों पदों का स्वरूपदर्शन कराने के साथ ही गणधर भगवान श्री गौतमस्वामीजी महाराज सम्यग्दर्शनरूप रत्नप्रदीप को मनोमंदिर में सदा के लिए स्थापित करने का, सम्यग्ज्ञान को सीखने का, सम्यकचारित्र के परिपालन का और सम्यक तप को आचरने का उपदेश देते हैं। उसमें श्री सम्यग्दर्शन पद के विषय में वे तारक कहते हैं कि-

हे भव्य जीवों! आप सदा के लिए अपने मनरूपी भुवन में श्री सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा प्रणीत आगमों में प्रकटित तत्त्वरूप अर्थों की सद्दहणा श्रद्धारूप-दर्शनरूप प्रदीप को अर्थात् सम्यक्त्वरूप रत्नप्रदीप को स्थापित करें।

आप देख सकते हैं कि गणधर भगवान श्री गौतमस्वामीजी महाराज जैसे भी श्री सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा कथित आगमों में प्रकटित तत्वरूप अर्थों की श्रद्धा को रत्नप्रदीपकी उपमा देकर, उस रत्नप्रदीप को सदा के लिए मनरूपी मंदिर में स्थापित करने का उपदेश देते हैं। इस उपदेश पर विचार करने से आप स्वयं समझ सकेंगे कि इस दीपक के अभाव में किसी भी प्रकार का प्रकाश वस्तुतः प्रकाश ही नहीं है; क्योंकि इसके अतिरिक्त अन्य सब प्रकाश आत्मा को वस्तुतः अंधा बनाने वाले ही हैं

इस सम्यक्त्वरूप रत्नप्रदीपके प्रकाश से रहित ज्ञान, चारित्र और तप आत्मा के मूलस्वरूप को प्रकट नहीं कर सकते। मुक्ति के अभिलाषी को एक क्षण भी इस रत्नदीपके बिना रहना अपनी मुक्ति की अभिलाषा को नष्ट करने के समान है। क्योंकि, इस रत्नप्रदीपके बिना वस्तुस्वरूप का सच्चा भान नहीं हो सकता। इसीलिए चार ज्ञान के स्वामी और द्वादशांगी के प्रणेता श्री गणधर देवों ने भी अपने हृदय में तमेव सच्चं निस्सकं जं जिणेहि पवेइयं’ (वही सत्य और निःशंक है, जो श्री जिनेश्वर देवों ने कहा है) इस प्रकार का निर्धारण किया और ऐसा ही निर्धारण करने के लिए प्रत्येक कल्याणार्थी भव्य जीव को उपदेश दिया।

अब आप विचार करिए कि शासन के सिरताजों के इन उपदेशों की अवगणना करके इस जमाने में आगमों को दूर रखो, अभी तो जमाने को देखो’, ऐसा कहने वालों में आचार्यत्व या साधुत्व किस प्रकार टिक सकता है? जो आगमों की आज्ञा की अपेक्षा रखे बिना यथेष्टरूप से लिख रहे हैं या बोल रहे हैं, वे किस प्रकार स्वयं को एक क्षण के लिए भी प्रभु के शासन में रख सकते हैं? विचार के बाद शुद्ध विचारकों को कहना ही पडेगा कि नहीं, किसी भी तरह नहीं! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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