शनिवार, 22 मार्च 2014

धर्म का मर्म


 दुःख भोगने योग्य है और सुख छोडने योग्य है’, इस सम्यग्दर्शन के मर्म को समझने के लिए सकल शिक्षण लेना, यह सम्यग्ज्ञान है। सुख छोडकर दुःख भोगने के लिए तैयार हो जाना, यह सम्यक चारित्र है। इसका पालन करने के लिए जगत की सब वस्तुओं से निरीह हो जाना, सम्यक तप है।

धर्म के इस मर्म को समझने के बाद ही स्वाधीन जीवन जीने की भूमिका तैयार होती है। जो सुख में हर्षित नहीं होता और दुःख में संतप्त नहीं होता, वह स्वाधीन जीवन जीने वाला कहा जाता है।दृष्टिराग तो समकित (सम्यक्त्व, सम्यग्दर्शन) को आने ही नहीं देता; परन्तु स्नेह-राग और कामराग भी कई बार समकित को जला डालते हैं। आज बहुत से व्यक्ति इस प्रकार के हैं जो मौज भी मारना चाहते हैं और धर्म भी कमाना चाहते हैं। यह विपरीत दिशा में जाने वाली दो नावों की सवारी के समान है। एक पांव इधर और दूसरा पांव उधर तो कैसे चल सकता है?

अरिहंत परमात्मा तो जगत के दीपस्तम्भ हैं, वे सर्व जीवों को कल्याणकारी मार्ग बताने वाले प्रकाशपुञ्ज हैं। जो इन महापुरुष को देख सकता है, इनके प्रकाश में, इनके आलोक में, इनके बताए हुए मार्ग का अनुसरण कर अपना जीवन संवार सकता है, उन्हें उनका मानव शरीर रूपी जहाज किनारे पर पहुंचा देता है। जो इन प्रकाशपुञ्ज, दीपस्तम्भ के आलोक में अपना अंतरावलोकन नहीं कर सकता और इनके द्वारा प्रकाशित कल्याण-मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकता अथवा नहीं करना चाहता, वह भव-सागर में डूब जाता है। भगवान का चार प्रकार का धर्म सारे संसार का कल्याण करने में समर्थ है। इस धर्म का मर्म जानने योग्य है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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