मुमुक्षु और श्रद्धालु आत्माओं को देव-गुरु-धर्म के विषय में बहुत ही सावधान
रहना चाहिए। मुमुक्षु आत्मा को तो श्रद्धालु बनने के लिए इस विषय में विशेष
सुनिश्चित मतिवाला बनना चाहिए। देवतत्त्व, गुरु तत्त्व और धर्मतत्त्व; इस
तत्त्वत्रयी में गुरु तत्त्व का स्थान, अमुक अपेक्षा से बहुत ही
महत्त्वपूर्ण है। देवतत्त्व और धर्मतत्त्व की पहचान सद्गुरुओं से होती है। श्री
वीतराग और सर्वज्ञ परमात्मा के विरहकाल में बडा आधार गुरु तत्त्व का है। गुरु
तत्त्व बिगडे तो देवतत्त्व के प्रति बुद्धि में विपर्यास आए, इसमें
आश्चर्य की बात नहीं।
सच्ची श्रद्धालु-सम्यग्दृष्टि आत्मा वही कहला सकती है, जो
आत्मा मोक्ष के आशय से कुदेव, कुगुरु तथा कुधर्म का त्याग करके; सुदेव, सुगुरु
और सुधर्म को स्वीकार करती है। देव में वस्तुतः कुदेव होते ही नहीं, परंतु
देव के रूप में जानेजाने वाले और पूजे जानेवालों में कुदेव भी हो सकते हैं। गुरु
में वस्तुतः कुगुरु होते ही नहीं, परंतु गुरु के रूप में जानेजाने वाले और
पूजेजाने वालों में कुगुरु भी हो सकते हैं। इसी तरह धर्म में वस्तुतः कुधर्म होता
ही नहीं, परंतु धर्म के रूप में जानेजाने वाले और आचरण किए जानेवाले मार्गों में कुधर्म
भी हो सकता है। अतः मुमुक्षु आत्मा को सच्चा परीक्षक बनना चाहिए।
किसी भी देव को देव के रूप में स्वीकार करने से पूर्व यह देखना चाहिए कि वह
वीतराग और सर्वज्ञ है या नहीं? जो वीतराग और सर्वज्ञ नहीं, वह
सुदेव नहीं। सुगुरु और कुगुरु की बात पर तो अभी हमने विचार किया ही है। सुगुरु वही
जो निर्ग्रन्थ हो,
वीतराग देव के द्वारा उपदिष्ट धर्म का मर्म बताने वाला हो, स्वयं
पांच महाव्रतों आदि का पालन करने वाला हो, कषायों को टालने वाला हो, धर्म
के विषय में संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि श्री वीतराग और सर्वज्ञ परमात्मा की
आज्ञा ही सुधर्म है। जो धर्म वीतराग और सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा प्ररूपित न हो वह
कुधर्म है। इस प्रकार विचार करके मोक्ष के आशय से कुदेवादि का त्याग करना और
सुदेवादि को स्वीकार करना,
यह जीव का सम्यग्दर्शन है।
यहां देवतत्त्व के सम्बंध में कुछ अधिक स्पष्टीकरण की आवश्यकता है। देव वीतराग
और सर्वज्ञ होने चाहिए,
इस विषय में दो मत नहीं, परंतु सब वीतराग और सर्वज्ञ
बनी आत्माओं का समावेश देवतत्त्व में नहीं होता। गुरुतत्त्व में सब मुक्तात्माओं
का समावेश होता है,
परंतु जो आत्मा वीतराग और सर्वज्ञता को पाने के बाद, जहां
तक सदेह विचरती है,
वहां तक उन आत्माओं में से जो मोक्षमार्ग की स्वतंत्र
प्ररूपक और धर्म तीर्थ की स्थापक होती हैं, वे ही देवतत्त्व में गिनी
जाती हैं, शेष सर्वज्ञ और वीतराग आत्माओं का समावेश गुरुतत्त्व में होता है।
सम्यग्दृष्टि इन सबके लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें