वीतराग और सर्वज्ञ बनकर धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले श्री तीर्थंकर
परमात्मा ने जगत के जीवाजीवादि सब पदार्थों के स्वरूप का वर्णन किया है। परंतु, उपादेय
के रूप में तो एक मात्र मोक्ष और मोक्षमार्ग का ही प्रतिपादन किया है। सुख
कहां-कहां है?
जहां सुख है, वहां कितने प्रमाण में सुख है? वह
सुख भी किस प्रकार का है?
और वह सुख किसको किस-किस उपाय से मिल सकता है? इसका
ज्ञान; तथा दुःख कहां-कहां है?
जहां दुःख है, वहां कितने प्रमाण में है? वह
दुःख भी किस प्रकार का है और वह दुःख किसको किस-किस कारण से मिलता है? इसका
भी ज्ञान उन तारकों को सर्वज्ञ होने से परिपूर्ण था। अतः दुःख के द्वेषी और सुख के
अति अभिलाषी जगत के जीवों को उन तारकों ने एक मात्र मोक्षमार्ग की साधना करने का
ही उपदेश दिया है।
दुःख का सर्वथा अभाव और उसके बाद सुख की परिपूर्णता के बिना मोक्ष संभव ही
नहीं है। जगत में कोई जीव ऐसा नहीं है, जिसे दुःख सचमुच अच्छा लगता
हो और सुख की उसे अभिलाषा न हो। दुःख की अभिलाषा हो और सुख की अभिलाषा न हो, ऐसा
संभव ही नहीं है। जगत के जीव दुःख से पीड़ित होते हैं और सुख के लिए तडपते हैं। इस
पीडा और तडपन की दुःखमय स्थिति का अंत मोक्ष के बिना असंभव है। इस कारण ही इन
परमात्मा ने भव्य जीवों को संसार से छुडाकर मोक्ष में पहुंचाने के लिए मोक्षमार्ग
का प्रतिपादन किया है। इन तारकों ने जगत के स्वरूप का जो वर्णन किया है, वह
भी इसीलिए किया है कि जो कोई जगत के स्वरूप का सच्चा ज्ञाता बनता है, उसे
स्वयं ही मोक्ष को साधने की इच्छा हुए बिना नहीं रह सकती। जगत के सब जीव मोक्ष को
प्राप्त करें,
ऐसी इच्छा भी उसे हुए बिना नहीं रहती। जिसके हृदय में इस
प्रकार की इच्छा पैदा नहीं होती, तो वह चाहे जितना पढा हो तो भी वस्तुतः वह
अज्ञानी है। वह तत्त्वज्ञानी भी सच्चा तत्त्वज्ञानी नहीं है, जिसके
हृदय में स्वयं के मोक्ष की इच्छा न हो और सब जीव मोक्ष प्राप्त करें, ऐसी
इच्छा भी नहीं हो।
पढाई अलग वस्तु है और ज्ञान का हृदय में परिणमन होना अलग बात है। ज्ञान का
हृदय में परिणमन होना चाहिए। आजकल तत्त्व के ज्ञाता बहुत कम हैं, परंतु
तत्त्व के ज्ञाताओं में भी ऐसे जीव बहुत कम हैं, जिनके हृदय में
तत्त्वभूत पदार्थों का ज्ञान सम्यग्दर्शन के आलोक में सम्यक प्रकार से परिणत हुआ
हो। जीव-अजीव आदि तत्त्वों के स्वरूप का यथास्थित ज्ञान हृदय में जब सम्यग्दर्शन
के आलोक में अच्छे प्रकार से परिणमन को प्राप्त होता है, तभी
वह ज्ञान, ज्ञान की कोटि में गिना जाता है। इसके बिना तो तत्त्वों के स्वरूप का ज्ञान भी
अज्ञान या मिथ्याज्ञान की कोटि में ही गिना जाता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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