मंगलवार, 18 मार्च 2014

सम्यग्दर्शन रूपी सूर्य का प्रकाश


इस विश्व की प्रत्येक आत्मा स्वभाव से निर्मल ज्ञान, दर्शन और चारित्र की स्वामी होने पर भी अनादिकालीन कर्मसंयोग के कारण अनंतकाल से मिथ्या-ज्ञान और मिथ्या-दर्शन के गाढ आवरण से आवृत है। जहां तक आत्मा से ये आवरण न हटें, वहां तक उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति मिथ्यात्वसहचरित होने से विपरीत दिशा में ही होती है। परिणाम स्वरूप सुख की अभिलाषी आत्मा अपने सुख के लिए जो प्रयत्न करती है, उनके द्वारा वह अधिक से अधिक दुःख की तरफ बढती जाती है। आत्मा पर छाया हुआ मिथ्यात्व का यह अंधकार पांच प्रकारों में विभक्त है।

अनादिकालीन मिथ्यात्व के गाढ अंधकार से घिरी हुई आत्मा राग-द्वेष की निबिड ग्रंथि से ऐसी बंधी हुई और दृष्टिराग के बंधन से ऐसी जकडी होती है कि देव-गुरु-धर्म के विषय में वह कभी यथार्थ विवेक नहीं दिखा पाती। अतत्त्व में तत्त्वबुद्धि और तत्त्व में अतत्त्वबुद्धि के कारण पौद्गलिक भावों में और संसार की क्रियाओं में उसे किसी प्रकार का अधर्म दृष्टिगोचर नहीं होता और आत्महितकर क्रियाएं उसे निरर्थक और डुबो देनेवाली लगती हैं।

कालपरिपक्वता के योग से, भव्यत्व स्वभाव प्रकट होने से, लघुकर्मिता के योग से उसकी आत्मा पर छाया हुआ गाढ मिथ्यात्वरूपी अंधकार जब हटने लगता है तब, मिथ्यात्व के मंद होने के कारण जीव में मोक्षाभिलाषा प्रकट होती है। इसके बाद निसर्ग से या सद्गुरु के उपदेश से सम्यग्दर्शन की अनिवार्यता का बोध और उसे प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा प्रकट होती है। जीव की इन सब अवस्थाओं का काल शुद्ध यथाप्रवृतिकरण का काल है। अनादि यथाप्रवृतिकरण द्वारा ग्रंथिदेश पर आया हुआ जीव इस शुद्ध यथाप्रवृतिकरण के द्वारा ही अपूर्वकरण को पाता है और उस अपूर्वकरण के द्वारा ग्रंथिभेद करता है। इसके बाद अनिवृत्तिकरण द्वारा मिथ्यात्व का उपशम कर अंतःकरण की स्थिति को प्राप्त करता है। उस समय उसके प्रत्येक आत्मप्रदेश पर सम्यग्दर्शनरूपी सूर्य का प्रकाश अत्यंत चमक उठता है।

इस प्रकार सम्यग्दर्शन को प्राप्त आत्मा में यथासंभव पांच प्रकार के विशिष्ट लक्षण प्रकट होते हैं, पांच प्रकार के दूषणों से वह बचता है, पांच प्रकार के भूषणों से वह सम्यग्दर्शन को अलंकृत करता है और इस सम्यग्दर्शन के प्रभाव से ही इस आत्मा में अनेक प्रकार की उत्तमताएं प्रकट होती है।

उस आत्मा को श्री जिनेश्वर देव के वचनों में ऐसा अविहड विश्वास पैदा होता है कि मानो जिसके योग से इसके प्रत्येक आत्म प्रदेश पर तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहि पवेइयंका मुद्रा लेख अंकित हो गया हो। अर्थ-काम उसे हेय लगते हैं। सुख में वह लीन नहीं होता और दुःख में दीन नहीं बनता। सुदेव-सुगुरु और सुधर्म उसकी आंख के सामने रमते रहते हैं। वह उनका सदा प्रशंसक होता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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