शुक्रवार, 7 मार्च 2014

बाह्य संयोगों का त्याग भी परम उपकारक है


मुमुक्षु आत्मा को आत्मगुणों के विकास के क्रम में ममत्व का त्याग करना चाहिए। धन-धान्यादि परिग्रह का और संसार के जिन-जिन पदार्थों और व्यक्तियों पर ममत्व भाव है, उसका भी त्याग करना चाहिए। मोक्षमार्ग की आराधना के लिए यह आवश्यक है। इस गुण के लिए आत्मा को बाह्य संयोगों का त्याग करना है। अनुकूल बाह्य संग भी अंत में तो दुःख के ही कारणरूप हैं’, यह बात निश्चित है। मुमुक्षु आत्मा को बाह्य संगों द्वारा भोगे जानेवाले सुखाभासों में रस नहीं रहता। उसे तो आस्तिक सुख का अनुभव करना है। मुमुक्षु को उपाधिजन्य नहीं, अपितु उपाधिरहित सुख चाहिए। बाह्य संग तो स्वयमेय उपाधिरूप हैं और अनेक प्रकार की उपाधि के जनक हैं। बाह्य संगों का योग मैत्रीभाव में भी विक्षेप डालने वाला होता है। अब तो, मुमुक्षु आत्मा को आंतरिक संगों पर आक्रमण करना है। इसके लिए उसे सर्वप्रथम यथासंभव बाह्य संगों का त्याग करना चाहिए। बाह्य संगों का त्याग करने से सबसे बडा लाभ तो यह होता है कि आत्मा की जो तृष्णा या लोभ-वासना है, वह क्रमशः नष्ट हो जाती है।

विषयों का संग जीव की लोभ-वासना का उद्बोधक है। विषय का संग न हो तो लोभ-वासना को अपना प्रभाव बताने का अवकाश नहीं रहता और मुमुक्षु आत्मा संग मात्र से रहित बनने की भावना में रमती रहती है। अर्थात् पहले लोभ-वासना वश में हो जाती है, उसे उद्बोधक सामग्री न मिलने से वह निर्बल बन जाती है और जीव की संगरहित बनने की भावना के बल से अंततः वह सर्वथा नष्ट भी हो जाती है। इस प्रकार बाह्य संगों का त्याग भी मुमुक्षु आत्माओं के लिए बहुत उपकारी सिद्ध होता है।

तृष्णा इतनी भयंकर वस्तु है कि इसे उपकारी महापुरुषों ने सब दोषों की जननी के रूप में और गुणों की घातिनी के रूप में वर्णित किया है। तृष्णा के वश में पडा जीव अवसर मिलने पर किस दोष का सेवन नहीं करेगा, यह नहीं कहा जा सकता। इससे उसमें जो गुण पहले आए हों वे भी नष्ट हो जाते हैं और यदि गुण न आए हों तो तृष्णा किसी गुण को आने नहीं देती। इसलिए मोक्षमार्ग की आराधना हेतु मुमुक्षु आत्मा को ममत्व का त्याग करके सब बाह्य संगों का त्याग करने के लिए उद्यत बनना चाहिए।

बहुत सावधान आत्माओं को भी बाह्य संग के अंश कभी-कभी बहुत भयंकर रूप में तृष्णा के आवर्त में खींच ले जाते हैं। अतः संभव हो तो उन्हें किसी भी तरह बाह्य संगों का सर्वथा त्याग करना चाहिए और जहां तक ऐसे सर्व त्यागी न बन जाएं, वहां तक जितने बाह्य संग छोडे जा सकें, उतने संगों को छोडकर शेष बाह्य संगों को छोडने के लिए प्रयत्न में लग जाना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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