शुद्ध मोक्षमार्ग के सच्चे आराधक अर्थात् धर्माचारी बनने के लिए मुमुक्षु
आत्मा को जैसे सदैव साधुजनों की सम्मान पूर्वक सेवा करने वाली बनना चाहिए, वैसे
ही मैत्री भाव का अभ्यासी बनने की भी आवश्यकता है। मैत्री भाव अर्थात् प्रत्युपकार
से निरपेक्ष प्रीति भाव। प्राणीमात्र के प्रति प्रीति भाव वाली बनना चाहिए और किसी
भी प्राणी से इस प्रीति भाव के बदले की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। अर्थात् जो अपने
प्रति प्रीति भाव वाला हो,
उसके प्रति प्रीति भाव वाला बनना, ऐसा
नहीं; अपितु अपने प्रति जो अप्रीति भाव वाला हो, उसके प्रति भी हमें तो प्रीति
भाव वाला ही बनना चाहिए।
इस मैत्रीभाव में ‘यह मेरा है और यह मेरा नहीं है’, ऐसा भी कोई भेद नहीं रखना
चाहिए। साथ ही यह तो पशु है, यह तो पक्षी है, ऐसा
भी कोई भेद नहीं रखना चाहिए। सूक्ष्म से सूक्ष्म देहधारी जीव हो, उसके
प्रति भी प्रीति भाव को धारण करना चाहिए। ऐसा मैत्री भाव सरलता से नहीं आ सकता।
प्रतिदिन इस मैत्री भाव का अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार प्रतिदिन मैत्रीभाव का
अभ्यास करते-करते आत्मा की द्वेषरूपी आग बुझ जाती है। क्योंकि मैत्री भावना के
अभ्यास से आत्मा में समभाव पैदा होता है।
मैत्री भाव अहिंसा का पूरक भाव है। संसार के अशान्त-व्याकुल और दुःखी होने का
सबसे बडा कारण हिंसा,
मैत्री भाव का अभाव है। मानव अपने सांसारिक सुख-साधनों को
येन-केन-प्रकारेण जुटाने का प्रयास करता है। इसके लिए उसे अन्य व्यक्तियों, अन्य
जीवों से संघर्ष एवं विरोध की भूमिका में खडा होना पडता है, बस
यहीं से उसकी भावना में हिंसा और अन्य जीवों में प्रतिहिंसा का दौर प्रारम्भ होता
है। यदि इंसान अपनी सुख-सुविधाओं के लिए दूसरों को कष्ट देना छोड दे तो प्रतिरोध
में होने वाले उसके दुःख स्वतः आधे रह जाएंगे। साथ ही हिंसा और प्रतिहिंसा जन्य
कर्मश्रृंखला के प्रवाह के अवरूद्ध हो जाने से सर्वत्र शान्ति और मैत्री भाव
स्थापित हो जाएगा। मैत्री भाव में करुणा का निर्झर बहता है। इसमें छःकाय जीवों के
प्रति करुणा है। किसी के प्रति भी द्वेष भाव का इसमें अभाव है। मैत्री भाव से कषाय
मंद पडते हैं। मैत्री भाव अनुकम्पा और वात्सल्य दोनों को सुदृढ करता है। यह
सम्यग्दर्शन प्राप्ति और उसकी निर्मलता को बनाए रखने का माध्यम है।
वैरभाव वाली आत्मा मोक्ष की सच्ची आराधना नहीं कर सकती। किसी के भी अकल्याण की
भावना न रहे और सबके कल्याण की भावना आए, तभी सच्चा धर्माचारी बना जा
सकता है। द्वेषभाव शांत हो जाए और मैत्रीभाव प्रकट हो, तभी
शुद्ध अहिंसामय धर्म का सुंदर रीति से पालन हो सकता है। अतः मुमुक्षु आत्मा को इस
गुण का भी विकास करना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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