सम्यग्दृष्टि जीव को पाप का आचरण करने पर भी पापकर्म का बंध अल्प होता है। यह
अल्प बंध भी सम्यग्दृष्टि जीव को ऐसा होता है कि उस पाप को वह जीव प्रतिक्रमण से, पश्चात्ताप
से और प्रायश्चित्त से देखते-देखते अवश्य उपशांत कर सकता है। साधुओं की बात तो दूर
रही, सुश्रावक भी अपने अप्रशस्त राग-द्वेष से उपार्जित आठ प्रकार के कर्म को आलोचना, निंदा
तथा गर्हा द्वारा शीघ्रता से क्षीण कर सकता है। किसी मनुष्य ने, चाहे
जैसे पाप का आचरण किया हो,
यदि वह सच्चे भाव से अपने पाप की सद्गुरु के पास आलोचना, निंदा, गर्हा
करे तो वह व्यक्ति अपने पाप के भार से मुक्त हो सकता है। मेरू जितने दुष्कृत को भी
वह जीव इस प्रकार अणु जैसा बना सकता है और इस अणु जितने पाप को भी इस प्रकार क्षय
कर सकता है।
अणु जितने सुकृत को भी मेरू जितना बना देने का और मेरू जितने दुष्कृत को भी
अणु जितना बना देने का तथा अल्प भी सुकृत परम्परा से परम फल प्राप्त करने का और
बडे दुष्कृत के फल से बच जाने का ऐसा उपाय अनंत ज्ञानियों के सिवाय कौन बता सकता
है? अर्थात् अपने ऊपर,
जीव मात्र पर भगवान श्री जिनेश्वर देवों का जो उपकार है, वह
वचनातीत है। यदि यह बात ध्यान में आ जाए, तो जीव को ऐसी ही इच्छा होती
है कि ‘इस संसार में जहां तक मुझे रहना पडे, वहां तक मुझे चाहे जैसी
स्थिति प्राप्त हो,
इसकी मुझे चिंता नहीं, परंतु मुझे जहां-जहां जाना
पडे वहां-वहां मुझे भगवान श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित मार्ग मिले, इस
मार्ग की रुचि मिले और इस मार्ग की आराधना मिले, बस मुझे यही चाहिए।’ इस
तरह उसकी अन्य सब इच्छाएं मिट जाती है न? अन्य सब इच्छाएं मिट जाएं और
एक मात्र भगवान श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित मार्ग की श्रद्धापूर्वक
आराधना को ही प्राप्त करने की इच्छा रहे, तो ऐसे जीव के लिए कोई भी
कल्याण अप्राप्त रह सकता है? यह आप बारम्बार सोचिए।
आज आप भले ही बडे सुकृत का आचरण न कर सकें और दुष्कृतों का आचरण किए बिना नहीं
रह सकते हैं,
परंतु यदि आप इस बात का बार-बार विचार करेंगे, इस
बात का रटन-चिंतन-मनन करते रहोगे, तो आप अपने छोटे सुकृतों को भी परम्परा से
परम फल देने वाले बना सकेंगे तथा अपने बडे से बडे दुष्कृतों को भी अकिंचित्कर बना
सकेंगे। अर्थात् सुख आपको छोडेगा नहीं और दुःख आप से दूर-दूर भागता रहेगा। भगवान
श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित मार्ग की श्रद्धापूर्वक आराधना के सिवाय अन्य
किसी वस्तु को भवांतर में भी प्राप्त करने की इच्छा न रहे, तो
अंत में ऐसी स्थिति प्राप्त होती है कि अन्य इच्छाओं की तो बात ही क्या, यहां
इच्छा करने की भी आवश्यकता नहीं रह जाती है।’ -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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