मंगलवार, 4 मार्च 2014

समकितदाता का प्रत्युपकार


श्री जैनशासन के सद्गुरु आपकी सम्पत्ति में से कुछ लेने वाले नहीं हैं। आप उनको देने के लिए बहुत-बहुत आग्रह करेंगे तो भी उनमें से वे कुछ लेने वाले नहीं हैं। श्री जैन शासन के सद्गुरु को घर मिले तो घर रखते नहीं हैं, धन-धान्यादि मिलें तो धन-धान्यादि रखते नहीं हैं। जो कुछ इनके पास था, वह भी इन्होंने इनके पास नहीं रखा। इनमें से इन्हें कुछ आ मिले तो भी वे उसे नहीं रखेंगे। क्योंकि यह सब पापरूप है, इसीलिए ये त्यागी हो गए हैं न?

श्री नयसार ने जब धन, रत्न, भवन आदि जो उसके पास था, वह ग्रहण करने हेतु मुनिवरों से विनती की तब श्री नयसार को धर्मोपदेश देनेवाले धर्मकथा-लब्धि सम्पन्न मुनिवर ने भी नयसार से कहा कि तुमने जो कहा है, वह बहुत अच्छा कहा है, क्योंकि सम्यक्त्व देने वाले गुरु पर एक भव में नहीं, बहुत से भवों तक हजारों लाखों प्रकार से उपकार करने में आएं तो भी उन गुरु के किए हुए परम उपकार का प्रत्युपकार नहीं हो सकता। यदि तुम्हें उन्हें कुछ देना ही है, तो हम कहते हैं कि तुम अब धर्म-कर्म में निरंतर उद्यम करते रहना और यदि तुम ऐसा करोगे तो तुम परमार्थ से हमको सब कुछ दे चुके हो!

इस प्रकार सम्यक्त्व दाता सद्गुरु आपका लेते नहीं और आपका कुछ लेने की इच्छा भी नहीं करते। परंतु, आपके मन में कैसे भाव आने चाहिए, यह समझने योग्य है। सम्यग्दर्शन की महिमा ज्यों-ज्यों समझ में आती है, वैसे-वैसे सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने वाले के प्रति और सुदेव-सुगुरु-सुधर्म के प्रति समर्पण भाव बढता जाता है। आपको ध्यान होना चाहिए कि जिसके हृदय में जैन शासन हो उसे अपने धनादिक का कैसे-कैसे व्यवहार करने की इच्छा होती है? इससे आप अपनी आत्मदशा को पहचान सकते हैं और उसे निर्मल भी बना सकते हैं।

श्री नयसार को उन मुनिवर ने साररूप में दो बातें कहीं। एक तो जिनकथित धर्म-कर्म में निरंतर उद्यमशील बने रहने को कहा; और दूसरी यह बात कही कि संसार के सुख के निमित्त तुम कभी धर्म में प्रमाद मत करना! जिसके मन में यह बात बैठ जाए, उसे संसार का सेवन बोझरूप लगता है और शासन का सेवन वह सच्चे दिल से करता है। श्री नयसार ने सम्यग्दर्शन पाने के बाद अपना शेष जीवन किस तरह बिताया, यह आप जानते हैं? इस सम्बंध में भी शास्त्र में वर्णन है। चारित्रकार परमर्षि ने कहा है कि श्री नयसार ने जब से सम्यग्दर्शन प्राप्त किया, तब से प्रतिदिन वे जिनधर्म का अभ्यास करते थे, मुनिवरों की भक्ति करते थे, जीवाजीवादि पदार्थों के रूप का चिंतन करते थे, जीवदया का पालन करते थे, साधर्मिकों का सम्मान करते थे और श्री जिनशासन की महिमा को बढाने का काम आदरपूर्वक करते थे।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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