शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

धर्म प्राप्त करने की योग्यता


आप सोचें कि आप अनदेखी-अनसुनी कहां करते हैं? धर्म के विषय में या अर्थ-काम के विषय में? धर्म के प्रति आज जो उपेक्षा बुद्धि आ गई है, उसे हटाकर उपादेय-बुद्धि लानी चाहिए। अर्थ-काम के प्रति जिनकी उपादेय बुद्धि है, उसे हटाकर उनके प्रति हेय बुद्धि लानी चाहिए। अर्थ-काम-धर्म में से धर्म-पुरुषार्थ प्रधान लगता हो तो धर्मीपन को पाने की योग्यता आई, ऐसा समझना चाहिए। धर्म की अपेक्षा अर्थ-काम प्रधान लगे तो धर्मीपन की योग्यता से गए! मार्गानुसारी तीनों की सेवना इस प्रकार करता है कि परस्पर बाधा उत्पन्न न हो। प्रत्येक को सोचना चाहिए कि हमारी स्थिति कैसी है? अर्थ-काम के लिए धर्म का भोग चढा दिया हो तो पश्चात्ताप भी होता है या नहीं? कोई धर्म-कार्य की पानडी आई, धन-लोभ ने घेर लिया, स्वयं लिखवाना नहीं, इसलिए आडी-टेडी बातें कर उसे उडा दी, परंतु यहां से निकलते हुए आत्मा को अंत में इतना भी लगता है कि धूर्तता की? यह ठीक नहीं किया, ऐसा विचार होता है? आत्मा की दशा का विचार करना सीखो और गुण न हो तो गुण को प्राप्त करो। यदि गुण है तो उसे स्थिर करने के लिए उपयोग वाले बनो, हेय के त्याग और उपादेय को स्वीकार करने में उद्यमशील बनो।

जहां तक संसार के प्रति उचित अरुचि न हो, वहां तक मोक्ष के प्रति उचित रुचि कैसे आ सकती है? मोक्ष के प्रति उचित रुचि उत्पन्न हुए बिना मोक्ष के उपाय बराबर गले उतरें और उनका उचित पालन हो, यह कैसे हो सकता है? मोक्ष के प्रति द्वेष न हो, धर्म के प्रति अरुचि न हो, यह हो सकता है, परंतु धर्म के प्रति रुचि पैदा की जाए और मोक्ष की भावना बलवती बने, यह आवश्यक है। इसके लिए श्री जिनेश्वर-कथित धर्म की आराधना में आत्मा को लगाना चाहिए। मेरी संसार के प्रति रुचि नष्ट हो, तथा धर्म ही उपादेय लगे और मोक्ष मिले; इसके लिए मैं धर्माराधना करता हूं, ऐसी भावना विकसित करनी चाहिए। धर्मीपन दिखाई न दे तो इससे परेशान होने के बजाय उसे लाने का प्रयत्न करना चाहिए।

आज कई लोगों की धर्म की सामान्य बात में भी यह कहने की आदत हो गई है कि शक्ति नहीं है।शक्ति न हो और इस कारण धर्म नहीं हो सकता हो, यह संभव है, परंतु हृदय कैसा होना चाहिए? भावना कैसी होनी चाहिए? धर्म नहीं होता है, इसकी ग्लानि कितनी होती है? आप विचार करके देखें कि क्या आप शक्ति के अनुसार धर्म करते हैं? आज तो लगभग यह हालत है कि शक्ति है, उतनी भावना नहीं है, भावना है, उतना प्रयत्न नहीं रहा है और प्रयत्न है, उतना रस नहीं रहा है। आज बहुतों की यह दशा है। धर्म का काम आए या धर्म का काम सुने तो एकदम शिथिलता आ जाती है और बाजार का काम आए तो एकदम उत्साह आ जाता है, न हो वहां से शक्ति आ जाती है। यह क्यों? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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