बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

मार्गानुसारी की मनोदशा


सम्यग्दर्शन को प्राप्त आत्मा तो अर्थ-काम को हेय ही मानती है और धर्म को उपादेय मानती है, परंतु मार्गानुसारी क्या मानती है? मार्गानुसारीपन भी सामान्य धर्म की कोटि में आता है। मार्गानुसारीपन को प्राप्त आत्मा धर्म को सुनने की योग्यता वाली मानी जाती है। इन आत्माओं की धर्म, और अर्थ-काम, इन तीनों में उपादेय बुद्धि होती है। श्री जिनेश्वर देवों के कहे अनुसार अर्थ-काम में इन आत्माओं की हेय बुद्धि नहीं होती। ये ऐसा मानती हैं कि धर्म, अर्थ और काम, ये तीनों ही एक दूसरे के बाधक न बनें, इस तरह इनका सेवन करना चाहिए। धर्म में इन आत्माओं की उपादेय बुद्धि तो होती है, परंतु अर्थ-काम हेय ही हैं, ऐसी दशा उनकी नहीं होती है। ऐसी आत्मा भी अर्थ एवं काम में से जिसकी उपादेय बुद्धि सर्वथा गई नहीं है और अर्थ काम-हेय हैं तथा धर्म ही उपादेय है, ऐसा जिसे लगता नहीं, वह भी अवसर आने पर किसके लिए किसको छोडना पसंद करती है, यह आप जानते हैं? सामान्यतया तो वह धर्म, अर्थ, काम को परस्पर बाधा न पहुंचे, इस तरह प्रवृत्ति करती है; परंतु अवसर आने पर काम के लिए धर्म और अर्थ को वह छोडती नहीं, परंतु काम को छोड कर धर्म और अर्थ की रक्षा करती है।

इसी तरह अर्थ और काम के लिए धर्म को छोडती नहीं, अर्थ और काम के लिए धर्म को छोडने की वृत्तिवाली नहीं होती, बल्कि धर्म के लिए आवश्यकता पडने पर अर्थ और काम को छोडने की वृत्तिवाली होती है। काम की अपेक्षा अर्थ और धर्म को प्रधान मानती है और काम तथा अर्थ की अपेक्षा धर्म को प्रधान मानती है। ऐसी आत्मा श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित धर्म को सुनने की योग्यतावाली मानी जाती है और इसीलिए ज्ञानी पुरुषों ने इसे धर्म देशना के लिए योग्य अथवा गृहस्थ धर्म के योग्य बताया है। उक्त दोनों बातों को जान लेने के बाद, यह विचार करना चाहिए कि हम धर्म को प्राप्त हैं या नहीं? यदि हमारी आत्मा यह स्वीकार करे कि हम धर्म को प्राप्त हैं, अर्थ-काम को उपादेय नहीं मानते, अपितु हेय मानते हैं; धर्म के प्रति उपादेय बुद्धि है और ज्ञानियों ने संसार आदि का जो स्वरूप जैसा बताया है, वैसा ही हमें लगता है, तो यह प्रसन्नता की बात है। हेय के त्याग में और उपादेय के स्वीकार में शक्ति का गोपन न करते हुए प्रवृति करना उचित है। परंतु, यदि आत्मा ऐसा कहे कि नहीं-नहीं, अभी अर्थ-काम में से उपादेय बुद्धि गई नहीं है, अर्थ-काम में हेय बुद्धि आई नहीं है, धर्म के प्रति चाहिए वैसी रुचि जागृत नहीं हुई है और श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा, वह सत्य और निःशंक है, ऐसा कहते अवश्य हैं, परंतु संसार आदि जिस रूप में लगने चाहिए, उस रूप में लगते नहीं हैं, तो विचार करने के लिए अवश्य रुकना चाहिए। हम अपने आपको धर्मी न होते हुए भी धर्मी मान लें, तो इससे लाभ नहीं, हानि होने की संभावना ही है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें