सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

धर्म ही उपादेय है!


सर्वविरति धर्म हो या देशविरति धर्म, साधु धर्म हो या गृहस्थ धर्म, उसका मूल सम्यग्दर्शन है। इस सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त व्यक्ति कैसा होता है? धर्म, अर्थ और काम में से अर्थ और काम जिसे एकांत हेय ही लगते हैं और एकमात्र धर्म ही जिसे उपादेय लगता है, वह सम्यग्दृष्टि है। अर्थ और काम में उसकी लेशमात्र भी उपादेय बुद्धि नहीं होती। यह संभव है कि वह अर्थ और काम के बीच रहे, अर्थ और काम प्राप्त करे और भोगे, परंतु वह अर्थ और काम को हेय ही समझता है तथा धर्म को ही उपादेय मानता है। अर्थ और काम में उपादेय बुद्धि आई कि सम्यक्त्व उड गया। सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त व्यक्तियों का यह लक्षण है। अर्थ और काम में यह हेय बुद्धि आई है? यह छोडने योग्य है, ऐसा लगा है? धर्म उपादेय लगा है? उपादेय और हेय में से हृदय किस ओर झुकता है? अर्थ-काम ग्रहण करने योग्य नहीं; त्याग करने योग्य हैं और धर्म आदरने योग्य है, ऐसी मान्यतावाली दशा कब आती है? श्री जिनेश्वर देवों ने जो तत्त्व जिस रूप में कहा है, वह वैसा ही है, ऐसी हृदयपूर्वक श्रद्धा हो तो ही। अर्थ-काम में उपादेय बुद्धि आती हो तो समझना चाहिए कि अभी कुछ बाधा है। उस बाधा को टालने के लिए यह प्रयत्न है। यह बाधा दूर हुई कि संसार की मंजिल माप ली है, यह समझना चाहिए।

एक पुण्यात्मा की भावना को प्रदर्शित करते हुए कलिकालसर्वज्ञ आचार्य भगवान श्रीमद् हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज कहते हैं कि-

तुल्ये चतुर्णां पौमर्थ्ये, पापयोरर्थकामयोः ।

आत्मा प्रवर्तते हन्त, न पुनर्धर्ममोक्षयोः ।।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष; ये चार पुरुषार्थ माने जाते हैं। इन चार पुरुषार्थों में से किसी की भी साधना करनी हो, तो पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। योग्य प्रयत्न के बिना न तो अर्थ की सिद्धि होती है, न काम की सिद्धि होती है, न धर्म की सिद्धि होती है और न मोक्ष की सिद्धि होती है। भाव यह है कि चारों पुरुषार्थों का पौरुषतुल्य होते हुए भी खेद की बात है कि आत्मा पापरूप अर्थ-काम में प्रवृत्ति करती है, परंतु धर्म और मोक्ष में प्रवृत्ति नहीं करती।' यह भावना कब आती है? अर्थ और काम हेय लगे बिना और धर्म एवं मोक्ष उपादेय लगे बिना यह भावना आ सकती है? अर्थ और काम पुरुषार्थ हैं, परन्तु कैसे? पापरूप। इन पुरुषार्थों की साधना में जितना पुरुषार्थ किया जाए उतना पुरुषार्थ पाप को बढाने वाला ही है। ऐसा होते हुए भी आत्मा इनमें प्रवृत्ति करती है और इनमें ऐसी भानभूल जाती है कि उसे ये ही उपादेय लगते हैं, तो सम्यग्दर्शन टिकेगा? श्री जिनेश्वर देव ने जो कहा वही सत्य और निःशंक है, ऐसा हृदयपूर्वक मानने वाले को अर्थ और काम उपादेय लगते ही नहीं, हेय ही लगते हैं; केवल धर्म को ही वह उपादेय मानता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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