गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

संसार नहीं छूटता इसका पश्चात्ताप होता है?


यदि संसार छूट जाए तो इसमें अप्रिय क्या है? संसार से छूटने के लिए तो सारी मेहनत है। हेय हेय-रूप में, उपादेय उपादेय-रूप में और ज्ञेय ज्ञेय-रूप में लगे, आगे-पीछे भी हेय का त्याग और उपादेय का स्वीकार तो होने वाला ही है। अर्थ-काम छोडने योग्य और धर्म करने योग्य, ऐसा यदि हृदय में अच्छी तरह निश्चित हो जाए, तो छोडने योग्य पुरुषार्थ में अनुरक्त बनकर ग्रहण-योग्य पुरुषार्थ की उपेक्षा हो तथा उसके ग्रहण न हो सकने का दुःख भी न हो, ऐसा नहीं हो सकता। फिर भी, एक बात यह भी निश्चित है कि उस प्रकार के किसी कर्म के योग से प्रतिदिन पश्चात्ताप होने पर भी सारे जीवन में भी हेय का उचित त्याग और उपादेय का आचरणरूप उचित स्वीकार नहीं भी हो सकता है।

पश्चात्ताप होने पर भी न छोडा जा सके, यह संभव नहीं है, ऐसा नहीं है। कुछ रोग ऐसे होते हैं कि जीवनभर बिस्तर नहीं छूटता। तो भी कब बिस्तर छूटे और मेरा रोग जाए, ऐसी भावना रोगी को अवश्य होती है। जैसे रोगी रोग के आधीन है और अपनी भावना होने पर भी बिस्तर छूटता नहीं, वैसे ही कोई आत्मा कर्म की परवशता से हेय का पश्चात्ताप होने पर भी त्याग नहीं कर पाता हो, यह संभव है, परंतु भावना तो हेय के त्याग की और उपादेय के ग्रहण की होनी ही चाहिए।

जो संसार को नहीं छोड सकते हैं, वे संसार में रहकर भी देश (अंश) से धर्म की आराधना कर सकते हैं। जो संसार का त्याग करें, वे ही धर्म कर सकते हैं और धर्मी गिने जा सकते हैं; और दूसरे थोडा भी धर्म नहीं कर सकते, ऐसा नियम इस शासन में नहीं है। निस्संदेह, संसार का त्यागकर धर्म की प्रवृत्ति में आत्मा को जोडने वाले उत्तम प्रकार के धर्मी हैं। परंतु संसार में रहकर देश से भी धर्म की आराधना नहीं की जा सकती, ऐसा नहीं है।

त्यागी की अपेक्षा आराधना बहुत कम होती है, ऐसा कहा जा सकता है, परंतु आराधना नहीं ही होती है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। संसार में रहकर धर्म की आराधना करने वाले का ध्येय तो संसार से मुक्त होने का ही होना चाहिए। संसार छोडने जैसा है, यह मान्यता उसकी होती ही है।

इस मान्यता के होने पर भी संसार नहीं छूटता है, इसका उसे दुःख हुए बिना नहीं रहता। संसार को नहीं छोड सकने वाले विशिष्ट गृहस्थ धर्म की आराधना कर सकते हैं और यह विशिष्ट धर्म प्राप्त न हो, वहां तक सामान्य गृहस्थ धर्म की आराधना कर सकते हैं। धर्म के सन्मुख होने की दशा आ जाए तो भी यह अंशतः अच्छा है। ऐसी आत्मा कभी तो धर्म को प्राप्त करेगी और उसकी आराधना भी करेगी।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें