शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

संसारी वस्तुओं की अनुकूलता भी खराब लगनी चाहिए!


पौद्गलिक संयोग मिलें तो ही अनुकूलता हो, पौद्गलिक संयोग हों तो ही शांति मिले, भोजन मिले तो ही भूख शांत हो, पानी मिले तो ही तृषा बुझे, यह ठीक है; परंतु ये चाहिएयह मनोदशा पाप के घर की है, ऐसा आत्मा स्वीकार करती है क्या? जैसे औषधि लेने की नौबत आई, यह पापोदय है, वैसे ये सब भोगादि चाहिए, यह कैसी मनोदशा है? भूख भी एक प्रकार का रोग है। शरीर यदि परलगे, उपाधिरूप लगे तो यह बात समझ में आती है।

दुनिया के पदार्थ मिलने पर अनुकूलता हो सकती है, परंतु यह दशा खराब लगनी चाहिए न? यह दशा कब छूटे, ऐसा लगना चाहिए न? ऐसा होने पर ऐसा लगेगा कि यह दुर्भाग्य है, यह उपाधि है कि खाने-पीने से ही शांति होती है। हम पुद्गल के संयोग में हैं, पुद्गल द्वारा धर्म की आराधना करनी है, पुद्गल को आहार न दें तो समभाव स्थिर नहीं रहता, आत्मा इतनी बलवान बनी नहीं है, इसलिए आहार करना पडता है, ऐसा लगता है?

भोजन जरूरी लगता हो तो तप जरूरी कैसे लगेगा? तप नहीं हो पाता, भोजन न लें तो आत्मा का समाधिभाव नहीं टिकता, ऐसा मानकर भोजन लेने में और आज जो भोजन लिया जाता है, इसमें कोई अंतर है या नहीं? खाने के लिए जीना और जीने के लिए खाना, इसमें बडा फर्क है। श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा, वही सत्य और निःशंक है’, ऐसा हृदयपूर्वक बोलने वाले की आत्मा परभाव में रमण करने वाली नहीं होती।

यदि केवल दुनिया के संयोग ही आवश्यक माने जाएं, इनके बिना चल ही नहीं सकता, ऐसा माना जाए, किसी भी तरीके से इन्हें प्राप्त करना और सुरक्षित रखना ही चाहिए, ऐसा माना जाए तो इनका प्रतिपक्षी अनावश्यक लगेगा या नहीं? ‘श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा, वह सत्य और निःशंक है’, ऐसा बोलने वाला जब यह कहता है कि ज्ञानियों ने जो कहा, वह सत्य है, परंतु पहले दुनियादारी और फिर धर्म; धर्म फुरसत में किया जा सकता है, परंतु दुनियादारी के बिना तो चल ही नहीं सकता।तो यह रोग किसके घर का है, यह सोचिए।

ज्ञानियों ने जो कहा, वह नहीं भी बन सके, आत्मा परके सहवास में रहे, यह भी संभव है, पर-पदार्थों को अमुक रीति से भोगने-पाने की स्थिति हो, यह भी संभव है, परंतु प्रश्न यह है कि वह मानता क्या है? यह मान्यता का प्रश्न है। श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा, वही सत्य और निःशंक है’, ऐसा माने तो भले ही उसे अन्यथा करना पडे, परंतु वह करने योग्य नहीं है, और धर्म न भी किया जा सके तो भी करने योग्य तो यही है, ऐसा उस आत्मा को लगे बिना नहीं रह सकता। ऐसी आत्मा को संसार का संयोग खराब लगे बिना नहीं रहेगा।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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