रविवार, 16 फ़रवरी 2014

दर्शनमोहनीय का क्षयोपशम


दर्शनमोहनीय का क्षयोपशम भी अच्छा हो और उसके साथ चारित्र मोहनीय का उदय हो और वह भी जोरदार हो तो उसके कारण वह आत्मा संसार के सुख-दुःख में रति-अरति का अनुभव करता हो, ऐसा भी हो सकता है। परंतु, इतने मात्र से उसमें सम्यग्दर्शन नहीं है, ऐसा निर्णय नहीं किया जा सकता। संसार के सुख में रति और दुःख में अरति का अनुभव करते हुए भी, इस विषय में वह सचमुच क्या मानता है, यह भी देखना पडेगा। दर्शनमोहनीय का क्षयोपशम, वास्तव में तो आत्मा को तात्विक दृष्टि से देखने वाला बना देता है। ज्ञानियों द्वारा कहे गए हेय, उसे हेय ही लगते हैं और उपादेय, उपादेय ही लगते हैं। यह कार्य दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम से निष्पन्न होता है। परंतु हेय को छोडने का जोरदार उल्लास और उपादेय को अंगीकार करने का जोरदार उल्लास पैदा होने के लिए चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम की आवश्यकता होती है।

दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम के प्रताप से मोक्ष व शुद्ध मोक्षमार्ग की रुचि प्रकट होती है, परंतु उस मार्ग के आचरण रूप सम्यकचारित्र तो चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम के बिना प्राप्त नहीं होता। दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम से मोक्ष को प्राप्त और मोक्षमार्ग के स्थापक देवाधिदेव पर बहुत श्रद्धा होती है। जो वीतरागी नहीं, अनंतज्ञानी नहीं, वे देव गिने जाते हों और उनका जगत् में चाहे जितना भारी चमत्कार माना जाता हो, तो भी ऐसे देव को वह कुदेव ही मानता है। गुरु के विषय में भी उसे श्री जिनेश्वर द्वारा कथित मोक्षमार्ग पर चलने के लिए संसार के सब संगों को छोड चुके साधु ही गुरु लगते हैं और अन्य जो कोई दुनिया में धर्मगुरु गिने जाते हों, वे उसे कुगुरु ही लगते हैं। धर्म भी श्री जिनेश्वर द्वारा कथित हो वही सुधर्म अन्यथा कुधर्म, ऐसा उसे लगता है। इस प्रकार कुदेव, कुगुरु और कुधर्म का त्याग और सुदेव, सुगुरु और सुधर्म का स्वीकार दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम से निष्पन्न होते हैं। परंतु चारित्र के लिए तो चारित्रमोहनीय का ही क्षयोपशम चाहिए।

भगवान ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र को मोक्षमार्ग कहा है। सम्यग्दर्शन को पाए हुए का ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहा जाता है। अर्थात् उसे तीन में से दो का योग प्राप्त हुआ माना जाता है। परंतु तीसरे के योग के लिए तो चारित्रमोहनीय का क्षयोपशम होना चाहिए। सम्यग्दर्शन वाला जीव देव की सेवा और गुरु की सेवा आदि करता है, परंतु उसमें चारित्र के परिणाम तो चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम होने पर ही आते हैं। सम्यग्दर्शन के योग से चारित्र पाने की भावना आए बिना नहीं रहती, परंतु उस भावनानुसार आचरण तो चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम से ही हो सकता है। अर्थात् विरति न हो तो भी सम्यग्दर्शन हो सकता है। परंतु विरति की भावना ही न हो तो सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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