कई लोग ऐसा कहते हैं कि ‘हमारी दशा चाहे जैसी हो, हमारा
व्यवहार चाहे जैसा हो,
परंतु श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा है, वही
सत्य और निःशंक है,
ऐसा तो हम हृदय से मानते हैं।’ यह
मान्यता यदि अंतःकरण से है तो यह उच्च कोटि की लघुकर्मिता है। यह निस्संदेह सत्य
है कि श्री जिनेश्वर देवों ने जिन-जिन वस्तुओं का जो-जो स्वरूप बताया है, उन
वस्तुओं को उस-उस रूप में अंतःकरण से माना जाए तो भी आत्मा की मुक्ति निश्चित हो
जाती है। परंतु अंतःकरण के साथ विचार करके निश्चित करना चाहिए कि ‘हम
श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा, वही सत्य और निःशंक है, ऐसा
कहते हैं या वास्तविकरूप से मानते हैं?’
यह बात यदि मात्र कहने की ही हो और हृदय में बराबर बैठी न हो तो इस बात को
हृदय में बराबर बिठा लेना चाहिए। आत्मा से पूछना चाहिए कि ‘बोल, तुझे
श्री जिनेश्वर देवों ने जिस वस्तु को जिस रूप में बताई है, वही
वास्तविक है,
ऐसा लगता है? उन तारकों ने जिसे उपादेय कही, जिसे
ज्ञेय कही और जिसे हेय कही,
वह उसी अनुसार लगती है? जिसे उन्होंने उपादेय कही वह
उपादेय ही लगती है?
हेय कही वह हेय ही लगती है? ज्ञेय कही वह ज्ञेय ही
लगती है?’ प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आत्मा के साथ यह विचार कर लेना जरूरी है।
श्री
जिनेश्वर देवों ने संसार को दुःखमय कहा है, दुःखफलक कहा है और
दुःखपरम्परक कहा है। आत्मा से पूछिए, ‘संसार तुझे कैसा लगता है?’ श्री
जिनेश्वर देव ने जो कहा,
वही सत्य और निःशंक है, ऐसा कहने वाले आपको क्या
संसार दुःखमय है,
दुःखफलक है और दुःखपरम्परक है, ऐसा
लगता है? यदि अंतःकरण से ऐसा लगता हो तो यह भी प्रसन्नता की बात है।
परंतु, इसके बदले यदि संसार सुखमय लगे, पौद्गलिक संयोग बहुत अच्छे
लगें, इनके मिलने पर इनमें आसक्त बना जाए, इनके जाने पर असाध्य सन्निपात
हो जाए, ये बढते रहें,
ऐसी रात-दिन चिंता रहा करे, जीवन में ये कभी न
छूटें तो अच्छा,
कभी आत्मा को ऐसा पश्चाताप न हो कि ‘मैं ‘पर’ में
मुग्ध बना रहा हूं तो मेरा क्या होगा?’ दिन रात इन्हें ही प्राप्त
करने की, भोगने की,
बढाने की और इन्हें सुरक्षित रखने की चिंता बनी रहे, तथा
इनके बिना सुख ही नहीं,
ऐसा अनुभव होता हो तो यह कैसी दशा है, इसका
विचार करिए!
कोई कह दे कि चौबीस घंटे बाद ये भोगादि जाने वाले हैं और यदि ऐसा विश्वास हो
जाए तो असाध्य सन्निपात हो जाता है, यह क्या बताता है? पौद्गलिक
संयोगों को ‘पर’ मानने वाले की मनोदशा कैसी होनी चाहिए? यह सब ठीक ढंग से विचार करिए।
यह विचार स्फूर्णता अनवरत रूप से चलनी चाहिए, क्योंकि इससे आपकी लघुकर्मिता
दृढ व निर्मल बने बिना नहीं रहेगी।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें