श्री जिनेश्वर देवों ने जिसमें सुख कहा है, उसमें दुःख लगता है और श्री
जिनेश्वर देवों ने जिसमें दुःख कहा है, उसमें सुख लगता है; सुख
के कारण अच्छे नहीं लगते और दुःख के कारण सुख के कारण लगते हैं तो वह सम्यग्दृष्टि
नहीं है। यह मिथ्यात्व के घर का रोग है। हम इस रोग के शिकार हैं या नहीं, यह
प्रत्येक को सोचना चाहिए। हमें क्या अच्छा लगता है और क्या अच्छा नहीं लगता, हमको
किसमें रस आता है और किसमें नहीं आता, हमें क्या मिले तो आनंद हो और
क्या नहीं मिले तो दुःख हो;
यह सब विचार करने योग्य है।
जितना संसार याद आता है, उतना श्री जिनेश्वर देव का धर्म याद आता
है? थोडा नुकसान हो जाए तो वह जितना खटकता है, उतनी कोई धर्मक्रिया रह जाए
तो वह खटकती है?
उपादेय बुद्धि धर्म में रहती है या संसार में? शरीर
की जितनी चिंता होती है,
उतनी आत्मा की होती है? धर्म करते समय भी आँख के
सामने संसार होता है या मोक्ष? धर्म संसार में मौज-मजा भोगने के लिए होता
है या संसार से छूटने के लिए? यह अहम सवाल हैं, जो
विचार-स्फुरणा को जन्म देने वाले हैं। यह सब अवश्य विचार करने योग्य है। यह
आत्म-गवेषणा का विषय है।
सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि संसार में से उपादेय बुद्धि निकल जाए और धर्म में
उपादेय बुद्धि हो जाए,
संसार हेय लगे और धर्म उपादेय लगे। संसार छूट न सके, इसमें
तो अविरति का उदय भी कारणभूत हो सकता है, परंतु संसार अच्छा लगता है, संसार
से ही मौज-मजा है,
ऐसा लगे तो क्या हो? समझदार रोगी को कुपथ्य सेवन
करते हुए क्या अनुभव होता है? आत्मा से पूछो कि ऐसी दशा है? धर्मी
के रूप में प्रसिद्धि किसे अच्छी नहीं लगती? हमें कोई धर्मी कहे, धर्मी
माने और धर्मी मानते रहें,
इसके लिए सावधानी रहती है या नहीं?
चाहे जैसी सुख-साहबीवाला संसार भी छोडने योग्य है, दुःखरूप
है, ऐसा तो लगना चाहिए न?
न छूटने और न लगने के भेद को समझो। संसार न छूटे, इससे
मिथ्यादृष्टित्व नहीं आ जाता, परंतु वह हेय न लगे तो मिथ्यादृष्टित्व
निश्चित हो जाता है। चाहे जैसा भी पौद्गलिक सुख दुःखरूप लगेगा तो आगे-पीछे
देर-सवेर संसार छूट जाएगा;
परंतु इसके बदले पौद्गलिक सुखों की झंखना रहा करती हो, पौद्गलिक
सुख वालों को देखकर नेत्र शीतलता पाएं, यदि वह दुःखी न लगकर उसके
जैसा सुखी होने की भावना होती हो, कब मैं भी इसके जैसा बंगला बनवाऊं, मोटर
दौडाऊं, ऐसी इच्छा होती हो,
तो यह किसके घर की दशा है? यह सोचो। श्री
जिनेश्वर देवों ने पौद्गलिक साधनों से हीन को ही दुःखी नहीं कहा है, अपितु
पौद्गलिक सुख साहबी का जिसके पार न हो और जो उसमें आसक्त हों तो वे भी दुःखी हैं, ऐसा
श्री जिनेश्वर देवों ने कहा है। यह बात गले उतरती है? -आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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