शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

मिथ्यात्वियों के गुणानुराग का डंका बज रहा है!


मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा दोषरूप है। गुण को देखकर प्रमोद हो, उसमें हर्ज नहीं। अयोग्य के गुण को बडा रूपक देने से आज सारा उधम मचा है। आज सब तरफ मिथ्यात्वियों के गुणानुराग का डंका बज रहा है। अभी भी सोते रहेंगे, दुनिया की जंजाल से नहीं उठेंगे, ‘चलेगा-चलेगाकहकर ढकेलते रहोगे तो परिस्थिति भयंकर होगी। जैसे-जैसे दिन जाते हैं, वैसे परिस्थिति भयंकर बनती है। अभी यह समय है कि भाग्यवान बच सके। भगवान के पास प्रार्थना करें कि ऐसे संयोग मिले कि साध्य साधा जा सके। वस्तुस्थिति ठीक से समझ में आए, हृदय में उतर जाए, फिर भी प्रमाद करें तो आपके जैसा दुर्भागी कोई नहीं। समझे हुए फिर भी व्यवहार, दुनिया अथवा पोजिशन के पीछे खींचे जाकर अगर आप धर्मसेवन न करें, शासनसेवा न करें तो शास्त्र कहते हैं कि कल्याण की कामना है कहां?

बात-बात में मैं और मेरी पोजिशनकहने वाले को शास्त्र कहते हैं कि वह धर्म पाया ही नहीं है। आज सम्यग्दृष्टि का मजाक उडाने वाले भी बहुत हैं। कोई उनसे कहे कि जैन कुल में जन्म लेने के बाद हम से इस प्रकार किया जा सकता है?’ तो वे कहेंगे कि बैठ-बैठ, सम्यग्दृष्टि की दुम! दुनिया में रहते हैं तो सब करना पडता है।इस स्थिति का कारण यही है कि धर्म को छोडकर अपनेपन की चिता बहुत है।और वह धर्म के प्रति वफादार कब तक रह सकते हैं? कहना ही पडेगा कि अपने को मान-पान, अच्छा स्थान मिले तब तक; पता चले कि अब स्थान नहीं है कि तुरंत महाराज को और आगम को खमासमणा देकर चले जाएं।

गुणानुरागी कितना विवेकी होता है? बाहर की क्रिया से वह उलझन में पडे? दान, शील, तप और भाव के स्वरूप को वह ठीक से समझता है, क्योंकि उस प्रत्येक के पीछे अनेक प्रकार के भाव काम करते होते हैं। प्रशंसा कौन-से दान की? व्यापारी ग्राहक को चाय पिलाए, पान खिलाए यह दान है? ना! नहीं। यह तो चाय की गरमी में उलझाकर उसके पास से मनमाने पैसे निकलवाने के लिए पिलाते हैं, इसलिए उचित दान भी नहीं कहा जाता। गुणों का नाप निकालें। जैसे-तैसे जनों के गुणगान से तो दुनिया का अधःपतन होता है। यह दोष धर्म के स्वरूप से अज्ञानी जैन समाज में नस-नस में फैला है। पुण्यवान कोई विरले बचे होंगे। अयोग्य स्थान में रहे हुए गुण की प्रशंसा से स्व-पर का नाश होता है, इसलिए उससे अवश्य बचना चाहिए। मिथ्यामती में भी गुण तो हो सकते हैं, परंतु वे गुण वास्तविक रूप से प्रशंसा के पात्र नहीं हैं। उस गुण से सम्यग्दृष्टि आत्मा को आनंद अवश्य हो। वे गुण अपने जीवन में उतारने की भावना भी सम्यग्दृष्टि आत्मा को जागे, परंतु उस गुण को लेकर जिसमें वह गुण हो उनकी, उन्मार्ग का प्रचार हो इस प्रकार की प्रशंसा तो नहीं ही की जा सकती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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