हमें गुण के साथ एतराज नहीं है, परंतु व्यक्ति के साथ है।
क्योंकि जिस गुण से सम्यग्दृष्टि आत्मा हित साधती है, उसी
गुण से मिथ्यादृष्टि आत्मा अहित साधती है। इसलिए ऐसे गुणवान की प्रशंसा न हो कि
जिसके परिणाम से अन्य आत्माएं अयोग्य मार्ग पर चढ जाएं। यदि उस प्रकार की प्रशंसा
करने में आए तो उस प्रकार की प्रशंसा करने वाला, दूसरों को उन्मार्ग पर
चढाने के पाप का भी भागीदार होता है। इसी कारण से गुणरागी बनने वाले को विवेकी, परीक्षक
एवं विचारशील बनना चाहिए और दिखावेभर के गुण में अनुरक्त नहीं हो जाना चाहिए। दिखावे
भर के गुण में अनुरक्त हो जाना, यह विवेक नहीं, अपितु
अविवेक है।
सज्जन के गुण जितने अनुपात में हों, उतने ही बाहर आएं और दुर्जन
में गुण हो थोडे,
परंतु दिखाई दें बहुत, क्योंकि उसका आडम्बर तो अपनी
जात को (अपने आपको) पूजवाने का होता है। इस कारण से गुणरागी दिखावे भर से लोभ में
पड जाए तो कभी भी सन्मार्ग पर टिक नहीं सकता। हित के अर्थियों को, अपने
आपको सन्मार्ग में स्थिर रखने एवं दूसरे उन्मार्ग पर न चढ जाएं, इसलिए, ‘गुण, परंतु
किसका है?’ यह अवश्य देखना चाहिए।
श्री जिनेश्वर देव के आगम से जिन-जिन की दृष्टि विपरीत है, वे
सारे ही मिथ्यादृष्टि हैं और ऐसी आत्माओं के गुण की प्रशंसा करना, यह
सम्यक्त्व का चौथा दोष है। इससे स्पष्ट है कि मिथ्यादृष्टि विद्वान और शक्तिसंपन्न
हो सकता है, परंतु उसकी विद्वत्ता ज्ञानकोटि की नहीं होती, अपितु अज्ञानकोटि की
होती है और उसकी शक्ति सद्गुणकोटि की नहीं होती, अपितु दुर्गुणकोटि की
होती है। घोर मिथ्यादृष्टि,
अपने ज्ञान, शक्ति और क्षमा आदि गुणों का
उपयोग आत्महित हेतु नहीं कर सकता। ‘द्वैपायन ने तप की शक्ति का
उपयोग किस में किया?’
यह तो आप जानते ही हैं। सचमुच सद्गुण पचाने के लिए दृष्टि
शुद्ध चाहिए। नहीं तो उस गुण को दुर्गुण बनते देर नहीं लगती, इसी
कारण से गुणरागी,
स्व-पर का घात हो ऐसी प्रशंसा न करें।
इस कथन से यह बात सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं ही रहती कि ‘सत्य
को असत्य मनवाने का कार्य यह शास्त्रकार चाहते ही नहीं।’ शास्त्रकार
कहते हैं कि गुण तो अवश्य हो, वहां भी उदारता, सदाचार, तप, भावना
भी हो, परंतु उस गुण से वह मुक्ति की साधना के बजाय संसार की साधना करते हैं; इससे
वे गुण जैसा फल देना चाहिए,
वैसा फल नहीं दे सकते। इसी कारण से उन गुणों को लेकर वे गुण
के स्वामी प्रशंसापात्र नहीं रहते। एक मिथ्यामति के गुण की या सारे मिथ्यामति के
गुण की और एक दर्शन की या सर्व दर्शन की प्रशंसा से सम्यक्त्व में दोष लगे बिना
नहीं रहता। इसीलिए गुणरागी को अत्यंत ही सावधान रहना चाहिए और ‘सजग
विवेकी’ बनना चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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