वस्तुमात्र का संपूर्ण वर्णन श्री जैनदर्शन के सिवाय अन्यत्र लभ्य ही नहीं है।
किसी भी गुण को लें या किसी भी तत्त्व को लें, उसका यथास्थिति और संपूर्ण
वर्णन सिवाय जैनदर्शन के,
अन्य किसी भी दर्शन में नहीं ही मिलेगा, यह
निर्विवाद है। जीवतत्त्व का स्वरूप जानना, यह प्रत्येक अहिंसावादी के
लिए अति आवश्यक है,
परंतु उसका स्वरूप जानने के लिए अन्यों के चाहे जितने ग्रंथ
पढें, परंतु यथास्थिति और संपूर्ण वर्णन किसी भी दर्शन में नहीं मिलेगा; क्योंकि
कोई तो आत्मा को ‘विभु’ और ‘एक ही’ कहेगा; कोई उसे ‘अनेक’ बतलाकर ‘सर्वव्यापी’
कहेगा; कोई उसे ‘अणुरूप’ कहेगा, कोई ‘नित्य
ही’ तो कोई ‘अनित्य ही’
कहेगा; कोई ‘निर्लेप ही’ तो
कोई ‘लेपयुक्त ही’
कहेगा। इससे अधिक स्वरूप किसी स्थान पर नहीं मिलेगा। जबकि श्री
जैनदर्शन में जीवों की अनेकता, उनकी देहपरिमाणता के साथ ही उसका स्वरूप, स्वभाव, उसके
प्रकार आदि उससे सम्बंधित प्रत्येक अवस्था का यथास्थिति और संपूर्ण वर्णन मिलेगा।
जीवतत्त्व के विषय में जैसे यथास्थिति वर्णन श्री जैनदर्शन में ही मिल सकता है, वैसे
अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, बंध, निर्जरा और मोक्षतत्त्व का यथास्थिति और संपूर्ण वर्णन भी श्री जैनदर्शन में
ही मिल सकता है। इससे यह बात सुनिश्चित है कि प्रत्येक वस्तु का यथास्थिति और
संपूर्ण वर्णन एक श्री जैनदर्शन में ही है, अन्य दर्शनों में नहीं है।
अन्य दर्शनों में तो किसी भी वस्तु का एकदेशी (आंशिक) वर्णन ही आया है और उसे ही
संपूर्ण मान लेने में आया है, इसी कारण से उन्हें कुदर्शन माना जाता है
और इसलिए ही उन दर्शनों को युक्तियुक्त अथवा सुंदर कहने में सम्यक्त्व को दोष लगता
है।
इस विश्व में परम वीतराग एवं सर्वज्ञ ऐसे श्री जिनेश्वरदेवों द्वारा प्रणीत
किया हुआ श्री जैनदर्शन ही ऐसा है कि जिसमें वस्तुमात्र का स्वरूप सर्वदेशीय और
(सर्वांशिक) यथास्थिति रूप से आलेखित किया गया है। द्रव्यार्थिक नय से आत्मा नित्य
है, पर्यायार्थिक नय से आत्मा अनित्य है, आत्मा का स्वरूप अनादि सिद्ध
है, आत्मा में क्षण-क्षण परिवर्तन होता है, आत्मा में होने वाला परिवर्तन
कैसे-क्यों होता है,
आत्मा की किस अवस्था में किसके योग से उसमें परिवर्तन होता
है, आत्मा में होते परिवर्तन के प्रकार क्या, आत्मा कब और किसके योग से
अपना संपूर्ण स्वरूप प्रकट करती है, संसारवर्ती जीव कितने हैं, वे
संसार में किस-किस प्रकार से रहे हुए हैं, सिद्धत्व को प्राप्त आत्माएं
कितनी हैं, वे किस प्रकार से रही हुई हैं वगैरह जीवतत्त्व संबंधी बातें जानने योग्य हैं
और इन सभी बातों का वास्तविक स्वरूप केवल श्री जैनदर्शन में ही आलेखित है। इसी
प्रकार अन्यान्य तत्त्वों की विविधता, विशिष्टता, विलक्षणता
एवं विरूपता आदि का वर्णन श्री जैनदर्शन में ही मिलेगा।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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