मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

संसार दुःखमय, दुःखफलक और दुःखपरम्परक है


यह संसार दुःखमय है, इस संसार में सुख नहीं है, अपितु दुःख है। संसार के स्वरूप का वर्णन करते हुए श्री जिनेश्वर देवों ने संसार को दुःखमय कहा, दुःखफलक कहा और दुःखपरम्परक भी कहा। इससे यह बात सच्ची और शंकारहित सिद्ध हो जाती है कि संसार में सुख नहीं, अपितु दुःख है, संसार का फल भी दुःख है और संसार से दुःख की परम्परा चलती है। क्योंकि, यह बात श्री जिनेश्वर देवों ने कही है। वही सत्य है और शंकारहित है, जो श्री जिनेश्वर देवों ने कहा है,’ ऐसा जोर देकर बोलने वाले को संसार ऐसा ही लगना चाहिए। आपको कभी ऐसा लगा कि यह संसार दुःखमय है? यह संसार दुःखफलक है, ऐसा लगा? यह संसार दुःख परम्परक है, ऐसा लगा?

क्या लगता है? जहां श्री जिनेश्वर देव सुख नहीं’, ऐसा कहते हैं वहां आपको सुख लगता है तो श्री जिनेश्वर देवों ने कहा, वही सत्य और निःशंक है’, यह बात कहां रही? यदि श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा वही सत्य और निःशंक है, ऐसा हृदयपूर्वक माना जाता हो तो बंगले में प्रवेश करते समय, भोजन करते समय, लाख रुपये मिलते समय, कभी हृदय में दुःख होता है क्या? ऐसा भी नहीं होता है कि इन सब में मुझे सुख क्यों लगता है? इन सबके द्वारा पुण्य के उदय वाले को पौद्गलिक सुख मिलता है, परंतु पौद्गलिक सुख वास्तविक सुख नहीं है, यह सुखाभास है। श्री जिनेश्वर देव के सेवक को तो पौद्गलिक सुख भी विचारणा के योग से दुःखरूप लगना चाहिए। यह दुःखरूप लगेगा, तब ही इसमें से रस उडेगा। रस उडने पर इन सब में रहते हुए, इन सबका भोग करते हुए भी इनमें रूखापन रहेगा। ऐसा विचार होगा कि मैं इन्हें भले ही भोगता हूं, परंतु यह मैं अच्छा नहीं करता; इसका परिणाम दुःख है। ऐसा करते हुए वैराग्य आ सकता है और आया हुआ वैराग्य कदाचित सुस्थिर भी बन सकता है।

एक तरफ हम कहते हैं कि "श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा है, वही सत्य है और वही निःशंक है" और दूसरी तरफ श्री जिनेश्वर देवों ने संसार को दुःखमय, दुःखफलक और दुःखपरम्परक कहा है, ऐसा जानते हुए भी यदि संसार हमें वैसा न लगे, उससे विपरीत लगे, संसार में सुख लगे तो यह भी देखना चाहिए कि इसका कारण क्या है? श्री जिनेश्वर देवों ने संसार को जैसा बताया है, वैसा लगते हुए भी उसका त्याग न कर सकें, यह संभव है, परंतु वह छोडने योग्य है, इसमें आत्मा का हित नहीं है, अपितु हानि है, ऐसा तो लगना ही चाहिए। अपनी वर्तमान दशा को देखकर हमें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि इसमें मिथ्यात्व काम करता है या यह अविरति का दोष है? यदि यह दोष अविरति सम्बंधी है, मिथ्यात्व का नहीं है, सम्यक्त्व हो और मान्यता में तनिक भी परिवर्तन न हो, तो खतरे की बात नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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