सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त आत्माओं में जितनी सर्वविरति होती है, उनकी
अपेक्षा देशविरति आत्मा और अविरति आत्मा बडी संख्या में होती हैं। देशविरति और
अविरति आत्मा तो सब गृहस्थ ही होती हैं न? ये सब विषयों का सेवन न करती
हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता और ये सब परिग्रह नहीं रखती हों, प्राप्त
न करती हों, संग्रह न करती हों,
ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। तब विषयों का सेवन करने वाला और
परिग्रह रखने वाला षट्काय की हिंसादि से बच सकता है? अभी स्थूल हिंसा, स्थूल
असत्य और स्थूल अदत्तादान से वह दूर रहता हो, यह संभव है। क्योंकि, कई
जीव ऐसे भी होते हैं कि ‘अभी हमारा काम पैसे के बिना नहीं चल सकता, क्योंकि संसार में बैठे हैं, और
संसार तो हिंसामय है;
अर्थात् हिंसा से भी सर्वथा नहीं बचा जा सकता; परंतु
अपने भोग और परिग्रह के लिए हम असत्य नहीं बोलेंगे और चोरी नहीं करेंगे, इस
मनोवृत्ति वाले होते हैं।
आप यदि ऐसा कहते हैं कि हम विवश हैं कि भोग बिना हमारा काम नहीं चलता; इसलिए
परिग्रह बिना नहीं चलता और भोग और परिग्रह के बिना नहीं चलता, अर्थात्
हम षट्काय की हिंसादि से सर्वथा बच नहीं सकते। परंतु चाहे जैसी स्थिति में भी हम
असत्य बोलेंगे नहीं और चोरी करेंगे नहीं; तो यह सुनकर हम प्रसन्न होते
हैं! परंतु इस संसार में ऐसे भी जीव हैं, जिन्होंने हिंसादि पांच
महापापों का त्याग स्थूलरूप से भी किया नहीं है। ऐसे जीवों में भी जो जीव
सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त हैं, उनके लिए भी शास्त्र कहता है कि ‘नरक
और तिर्यंच गति के द्वार उन जीवों के लिए बंद हैं और दिव्य-सुख, मानुषिक-सुख
तथा मुक्ति-सुख उनके स्वाधीन हैं!’ तब विचार करना चाहिए कि ‘ऐसा
होता है तो उसका कारण क्या है? हिंसादि चालू है, विरति
है नहीं, तो भी ऐसा होता है तो ढूंढना चाहिए कि ऐसे जीव कैसे मनोभाव के स्वामी होते
हैं। क्रिया में तो कोई अच्छाई नहीं, क्रिया तो पापक्रिया ही है, फिर
पापक्रिया होते हुए भी सम्यग्दृष्टि जीवों को दुर्गति से बचा लेने वाली चीज क्या
है? और उन्हें दिव्य आदि सुखों को स्वाधीन बना देनेवाली वस्तु क्या है? ऐसी
स्थिति में मनोभाव का विचार किए बिना काम नहीं चलता और यह विचार भी योग्य स्वरूप
में करना पडेगा।
इस विषय में जैसे-जैसे विचार करते हैं, हमें दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम
या उपशम की महत्ता समझ में आती है। यह क्षयोपशम या उपशम भाव ही सम्यग्दृष्टि जीव
द्वारा होने वाली पाप क्रियाओं में से पाप के रस को निचोड डालता है। यह क्षयोपशम
भाव ही सम्यग्दृष्टि जीव को पुण्यबंध में सहायक होता है और इस क्षयोपशम भाव द्वारा
ही सम्यग्दृष्टि जीव निर्जरा करने वाला बनता है। वह पाप करता है तो विवशता से करता
है, उसमें उसे रस नहीं होता, उसी का यह फल है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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