बहुत मननपूर्वक विचार करिए कि ‘अनंतज्ञानी श्री जिनेश्वर
देवों ने इस
संसार को जैसा बताया है, वैसा आपको कभी लगा है?’ यह संसार दुःखमय, दुःखफलक और दुःखपरम्परक है, अतः श्री जिनेश्वर देवों ने इसे हेय कहा है, ऐसा कभी हृदय में विचार हुआ है? ऐसी उत्तम कोटि की सामग्री वाला मनुष्य-भव पाकर भी श्री जिनेश्वर देवों ने संसार के जो उपाय बताए हैं, उनका मैं पालन नहीं कर सकता, यह मेरा दुर्भाग्य है, ऐसा कभी अनुभव होता है? पौद्गलिक पदार्थों को पाने-भोगने-सुरक्षित रखने और बढाने में आसक्त बने रहना, भवपरम्परा को बढाने वाला है, ऐसा कभी सोचा है? यह सब कब छूटेगा और कब मोक्ष-सुख की प्राप्ति होगी, ऐसी विचारणा कभी आई है क्या?
संसार को जैसा बताया है, वैसा आपको कभी लगा है?’ यह संसार दुःखमय, दुःखफलक और दुःखपरम्परक है, अतः श्री जिनेश्वर देवों ने इसे हेय कहा है, ऐसा कभी हृदय में विचार हुआ है? ऐसी उत्तम कोटि की सामग्री वाला मनुष्य-भव पाकर भी श्री जिनेश्वर देवों ने संसार के जो उपाय बताए हैं, उनका मैं पालन नहीं कर सकता, यह मेरा दुर्भाग्य है, ऐसा कभी अनुभव होता है? पौद्गलिक पदार्थों को पाने-भोगने-सुरक्षित रखने और बढाने में आसक्त बने रहना, भवपरम्परा को बढाने वाला है, ऐसा कभी सोचा है? यह सब कब छूटेगा और कब मोक्ष-सुख की प्राप्ति होगी, ऐसी विचारणा कभी आई है क्या?
स्तवन बोलते हुए भगवान से मोक्ष तो मांगा जाता है न? यह
मांग भी आजकल प्रायः ऊपर-ऊपर की बन गई है! ‘आपो, आपो
ने महाराज! अमने मोक्षसुख आपो,’ इस प्रकार दुहरा-दुहरा कर गाते हुए भी
क्या संसार सचमुच बुरा है,
ऐसा लगा है? यह पद हृदय से बोला जाता है
या ग्रामोफोन की रिकार्ड की तरह बोला जाता है? ‘मोक्ष सुख हमें दो’, ऐसा
बोलते समय का आसन,
दृष्टि, मुख के भाव आदि देखें तो प्रायः ऐसा लगता
है कि मुंह से अवश्य बोला जा रहा है, परंतु संसार दुःखमय लगा है, संसार
से छूटने की भावना है,
संसार में रहना पडता है, यह चुभता है, अतः
मोक्ष सुख मांगा जाता है,
ऐसा नहीं है। श्री जिनेश्वर देव के पास जाने से पहले तो ‘निसीही’ बोलने
का विधान है,
परंतु यह क्यों बोला जाता है, इसका विचार कितनों को
है? ‘निसीही’ बोलते हुए आत्मा रुकी?
‘निसीही’ का आचरण न हो तो पांव भारी हो जाने चाहिए; अंदर
जाने के बाद भी दूसरी भावना आए तो आत्मा को कंपकपी छूटनी चाहिए। संसार हेय है, मोक्ष
उपादेय है, ऐसा उस समय भी लगना चाहिए।
जो संसार को ही स्थिरवासरूप बनाना चाहता है, वह सम्यग्दृष्टि नहीं
है। सम्यग्दृष्टि तो संसार से छूटने की भावना वाला होता है। सम्यग्दृष्टि वह है जो
‘श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा, वही सत्य और निःशंक है’, ऐसा
न केवल कहे, अपितु हृदयपूर्वक माने और उस पर यथाशक्ति आचरण करने का अनवरत रूप से प्रयास
करे। श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित तत्त्वों के प्रति उसकी रुचि होती है।
चाहे जैसा भी पौद्गलिक सुख हो, उसे विचार करने पर दुःखरूप लगता है।
क्योंकि, श्री जिनेश्वर देव का सेवक परिणाम का विचार किए बिना नहीं रहता। इस प्रकार यदि
परिणाम का विचार किया जाता रहे तो संसार हेय लगे बिना नहीं रहेगा। संसार छोडा न जा
सके, यह संभव है,
परंतु उन तारकों के कहे अनुसार छोडने में ही कल्याण है, ऐसा
तो वह मानता ही है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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