बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

सम्यग्दृष्टि धर्म-अर्थ-काम को कैसा माने?


अनंत उपकारी श्री जिनेश्वर देवों ने ऐसा सुंदर मार्ग प्ररूपित किया है कि इस मार्ग की यदि बराबर आराधना की जाए, इस मार्ग पर यदि बराबर चला जाए, इस मार्ग का यदि आचरण किया जाए, तो जगत के जीव जो वास्तविक रूप से चाहते हैं, उसे बहुत सरलता से प्राप्त कर सकते हैं। जगत के जीवों की वास्तविक इच्छा दुःख से और सुखाभास से मुक्त होने की है तथा वास्तविक सुख को पाने की है। जगत के जीवों को ऐसा सचमुच अच्छा नहीं लगता जो दुःखवाला हो। दुःख को खींचकर लाने वाला सुख भी वास्तविक रूप से जगत के जीवों को रुचिकर नहीं लगता। जगत के जीवों को सुख चाहिए और वह भी ऐसा कि जिसमें दुःख का अंश मात्र न हो, सदाकाल टिकने वाला हो तथा अधूरा भी न हो। जगत के जीवों की यह अभिलाषा सरलता से सफल हो, ऐसा मार्ग श्री जिनेश्वर देवों ने बताया है।

श्री जिनेश्वर देवों के द्वारा बताया हुआ मार्ग ऐसा उत्तम होने पर भी, इस मार्ग का जीवन में शक्ति-अनुसार आचरण न दिखे, इस उपाय को व्यवहार में उतारने का उल्लास न दिखे, इससे विपरीत मार्ग के आसेवन में तत्परता दिखे और ज्ञानियों ने जो दुःख के कारण बताए, वे सुख के कारण लगें, तो क्या समझना चाहिए? दुःख नहीं चाहिए और सुख चाहिए, इस बात में मतभेद है? नहीं। क्योंकि, ऐसा तो सब कहते हैं कि दुःख टले और और सुख मिले, इसके लिए तो हम रात दिन प्रयत्न करते हैं; इससे स्पष्ट है कि दुःख को दूर करने की और सुख को पाने की इच्छा तो सबकी है ही। अब, यह इच्छा होने पर भी, इस इच्छा को बराबर सफल कर सकें, ऐसा श्री जिनेश्वर देवों ने मार्ग बाताया है, उसका सेवन क्यों नहीं होता? यह प्रश्न जब खडा होता है, तब बडी दुविधा होती है। दुःख नहीं चाहिए और सुख चाहिए, इस बात में मतभेद नहीं, फिर भी श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित अनुपम सुख के मार्ग का शक्ति-अनुसार पालन नहीं होता, इसका कारण क्या है?

श्री जिनेश्वर देवों के बताए हुए मार्ग पर श्रद्धा नहीं?’ इस प्रश्न के उत्तर
में नाऐसा मानने को भी हृदय इनकार करता है। श्री जिनेश्वर देवों ने जो कहा है, वही सत्य है और शंकारहित है, ऐसा स्पष्ट एवं जोरदेकर कहने में ही हृदय को संतोष होता है। ये तारक असत्य कहते ही नहीं, ऐसा हमें विश्वास है। इन तारकों ने जो कहा है, वह सत्य ही है। अर्थात् श्री जिनेश्वर देवों के कथित मार्ग पर श्रद्धा नहीं है, ऐसा भी हमें स्वीकार नहीं है। इतनी भी जो स्थिति है, वह लघुकर्मिता को सूचित करती है, यह निश्चित है। लघुकर्मी हुए बिना आत्मा की ऐसी स्थिति नहीं होती। इतना होते हुए भी जिन आत्माओं को अधिक लघुकर्मी बनना हो और अंत में कर्मरहित दशा प्राप्त करनी हो, उनको अपनी वास्तविक स्थिति को समझने और सोचने के प्रयत्न के प्रति असावधान नहीं रहना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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