मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

वीतराग परमात्मा का सर्वदेशीय शासन


जब भी कोई जीव सम्यक्त्व प्राप्त करता है, वह जीव सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व मिथ्यादृष्टि ही होगा न? वह मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्व को प्राप्त कराने वाले परिणामों का स्वामी बने बिना तो सम्यक्त्व प्राप्त नहीं करेगा न? अर्थात् उपदेशादि के श्रवण से या स्वाभाविकरूप से भी जीव सम्यक्त्व की सन्मुख दशा योग्य क्षयोपशम को प्राप्त करता है, तब ही वह जीव क्रमशः सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है। ऐसे जीव के मिथ्यात्व का उदय चालू है, परंतु वह मंद पड गया होता है। उसको इतना क्षयोपशम हुआ है। अर्थात् उस जीव को जो कुछ गुण लाभ होता है, वह उस क्षयोपशम के बल से होता है।

ऐसे जीव को मिथ्यादृष्टि कहने के बजाय सम्यक्त्व के सन्मुख हुआ जीवकहना अधिक संगत है। यदि ऐसा न हो तो जीव सम्यग्दर्शन गुण को प्रकट कैसे कर सकता है? इसीलिए धर्म को धर्म के रूप में करने की शुरूआत प्रथम गुणस्थान से होती है, ऐसा मिथ्यात्वादि की मंदता की अपेक्षा से कहा जा सकता है। सम्यक्त्व की सन्मुख दशा को प्राप्त जीव का भाव सम्यग्दृष्टि जीव के भाव के साथ अंशरूप में समानता करने वाला होता है और इस कारण से ही वह भाव उस जीव को सम्यक्त्व प्राप्त कराने वाला बनता है।

हम सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त हैं या हम में सम्यग्दर्शन गुण को प्रकट करने की इच्छा पैदा हुई है, अतः हम सम्यक्त्व की सन्मुख दशा में हैं? यह हमें स्वयं शास्त्र की बात को समझकर निश्चित करना चाहिए। यह सब सुनते हुए सर्वप्रथम तो हमें यह प्रतीति हो जानी चाहिए कि श्री वीतराग का शासन ऐसा है कि इसके सच्चे अभ्यासी आत्माओं को ऐसी समझपूर्वक प्रतीति होती है कि, ‘जगत के सब शासनों के सन्मुख खडे रहने की और धर्मशासन की परिपूर्ण योग्यता स्वयं में होने की प्रतीति कराने की शक्ति एकमात्र श्री वीतराग परमात्मा के शासन में ही है

दुनिया में शासन बहुत हैं और स्वयं को धर्मशासन बताने वाले शासन भी बहुत सारे हैं। उनमें श्री वीतराग परमात्मा के शासन को छोडकर शेष जो शासन हैं, उनमें कई तो वास्तविक रूप से धर्म शासन ही नहीं हैं। और जो धर्मशासन कहे जा सकते हैं, वे भी आंशिक धर्म शासन ही हैं। वास्तव में तो उन शासनों की सब बातें निरपेक्ष होने के कारण वे कुदर्शन हैं, जबकि श्री वीतराग परमात्मा का शासन सर्वदेशीय शासन है। श्री वीतराग परमात्मा के शासन में आत्मा के स्वरूप का वर्णन इस तरह किया गया है कि जो कहीं बाधक नहीं होता। आत्मा अनादिकाल से कैसी है, आत्मा का जड के साथ क्या सम्बंध है, आत्मा किससे व कैसे बद्ध होती है और कैसे मुक्त हो सकती है; इत्यादि का वर्णन श्री वीतराग परमात्मा के शासन में परस्पर अविरुद्ध रीति से किया गया है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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