अनंत उपकारी भगवान श्री जिनेश्वर देव के शासन में सम्यक्त्व का महत्त्व इतना
अधिक आंका गया है कि इसके बिना ज्ञान भी सम्यक ज्ञानरूप नहीं होता। इसके बिना
चारित्र भी सम्यक चारित्ररूप नहीं होता और इसके बिना तप भी सम्यक तपरूप नहीं होता।
चाहे धर्मशास्त्रों का ज्ञान हो, चाहे भगवान श्री जिनेश्वर देवों के
वचनानुसार अर्थ से प्ररूपित और श्री गणधर भगवंतों द्वारा सूत्ररूप से ग्रंथित
आगमशास्त्रों का ज्ञान हो,
तो भी अगर उसको धारण करने वाली आत्मा सम्यक्त्व को प्राप्त
न हो, तो उस आत्मा का वह शास्त्रज्ञान भी सम्यग्ज्ञान के रूप में उस आत्मा को परिणत
नहीं होता।
अतः उस आत्मा का वह शास्त्रज्ञान भी अज्ञान अथवा मिथ्याज्ञान की कोटि में गिना
जाता है। इसी प्रकार चारित्र भी भगवान द्वारा प्ररूपित चारित्र के आचारों का आचरण
रूप हो तो भी उस चारित्र का पालन करने वाली आत्मा यदि सम्यक्त्व को पाई हुई न हो
तो उस आत्मा का वह चारित्राचार का पालन भी सम्यक चारित्र की गिनती में नहीं आता, अपितु
कायकष्टादि की श्रेणी में आता है।
इसी प्रकार तप के विषय में भी समझना चाहिए। तप भी भगवान द्वारा प्ररूपित
अनशनादि प्रकारों के आसेवनरूप हो तो भी उस अनशनादि तप का आसेवन करने वाली आत्मा यदि
सम्यक्त्व को प्राप्त न हो तो वह तप, उस आत्मा के कर्मों को तपाने
वाला नहीं बनता। अपितु आत्मा को संतप्त बनाने आदि के द्वारा वह तप उस आत्मा के लिए
संसारवृद्धि का कारण बन जाता है। अतः आत्मा के उस तप के आसेवन को भी सम्यक कोटि के
तप में नहीं गिना जाता।
जबकि सम्यक्त्व का यह प्रभाव है कि उसकी मौजूदगी में ज्ञान इस तरह आत्मा में
परिणत होता है कि वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान गिना जाता है; चारित्र
का पालन ऐसे भावपूर्वक होता है कि उससे उस चारित्र का पालन सम्यक चारित्र गिना
जाता है और तप भी ऐसे भावपूर्वक होता है कि उससे उस आत्मा से लगे कर्म तपते हैं, कर्म
की निर्जरा होती है और इसलिए वह तप सम्यक तप की कोटि में गिना जाता है। इस
सम्यक्त्व गुण की इस प्रकार की महिमा को जो जीव सुन लेता है और जो यह भी मानता और
समझता है कि ‘शास्त्र ने ऐसा कहा है और शास्त्र कभी मिथ्या नहीं कहता’, तो उस
जीव को सम्यक्त्व पाने की इच्छा हुए बिना रहेगी क्या? ‘मुझे
मेरी आत्मा में यह गुण प्रकटे, ऐसा करना चाहिए’, ऐसा
विचार उसके दिल में पैदा हुए बिना रहेगा क्या? जिस जीव के मन में ऐसा विचार
आया, वह जीव सम्यक्त्व गुण की महिमा को बताने वाले शास्त्र का अथवा उस सम्यक्त्व को
प्राप्त करने के उपायों की प्ररूपणा करने वाले ज्ञानी भगवंतों द्वारा कथित
शास्त्रों का ज्ञान सम्पादन करने का पुरुषार्थ करेगा न? क्योंकि, उसे
सम्यक्त्व पाना है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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