गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

बुद्धिमान भी मूर्ख की संगत में मूर्ख बन जाते हैं!


सम्यग्दर्शन का पांचवा दोष है, ‘मिथ्यामती का परिचय। व्यापार के काम से या दुनियादारी के संबंध के कारण मिलना-जुलना पडता है, इसे परिचय नहीं मानेंगे, किन्तु साथ उठने-बैठने का गहरा संबंध हो, उसे परिचय कहते हैं। मिथ्यामती के परिचय के परिणामस्वरूप पूर्व-उल्लेखित चारों दोषों का आत्मा में प्रवेश होता है। कलिकालसर्वज्ञ आचार्य भगवान श्री हेमचंद्रसूरीश्वरजी महाराज बतलाते हैं कि मिथ्यामती के परिचय से दृढ सम्यक्त्व में भी भेद होता है, तो फिर सामान्य सम्यक्त्व के विषय में तो पूछना ही क्या? मिथ्यामतियों के पास रहने से, उनकी क्रिया देखने से, उनके साथ बातचीत के अधिक प्रसंग के फलस्वरूप बात-बात में शंका उत्पन्न होती है। दृढ समकिती भी बदल जाएं तो सामान्य या नए धर्मी का क्या कहना?
शास्त्रकार कहते हैं कि समकिती को इन पांचों ही दोषों से दूर रहना चाहिए। समर्थ आत्मा के लिए अलग विधान है। उसके लिए तो मिथ्यादृष्टियों की सभा में जाने की भी छूट है तथा उनके साथ वाद-विवाद करने की भी छूट है, क्योंकि उसमें तो उन्मार्ग में स्थित मनुष्यों को यहां सन्मार्ग में खींच लाने की क्षमता होती है। कई लोग कहते हैं कि गुटबंदी से क्या लाभ? अगर हमारा मार्ग सही है तो गुटबंदी की क्या आवश्यकता? क्या हमारे दर्शन में कोई लचरपना है? लेकिन उन्हें पता नहीं, दुनिया में कहावत है कि "तंबाखू के खेत को रक्षक-बाड की आवश्यकता नहीं होती।" महंगी फसल के खेत के लिए ही रक्षक-बाड बनाना आवश्यक हो जाता है। रक्षक-बाड न हो तो वहां समझ लीजिए कि खेत की फसल बहुत मूल्यवान नहीं है। दुनिया मूल्यवान वस्तु की रक्षा के लिए प्रयत्न करती है। ज्यादा मूल्यवान न हो, ऐसी वस्तु की, ऐसे माल की रक्षा की चिंता कोई नहीं करता। अनादिकाल से मिथ्यात्व में डूबी हुई, मिथ्यात्व का सेवन करने वाली और उसी में मगन रहने वाली आत्मा महापुण्य के योग से इस सम्यग्दर्शन को प्राप्त करती है, तब उसकी रक्षा के लिए उचित उपाय प्रयत्नपूर्वक करना ही चाहिए कि नहीं?
दुनिया में कहा जाता है कि बुद्धिमान भी मूर्ख की संगत में मूर्ख बनजाते हैं। इसीलिए ही नीतिकार भी कहते हैं- न मूर्खजनसंसर्गः, सुरेन्द्रभवनेष्वपि
अगर अच्छी संगति न मिले तो वन में रहना अच्छा है; किन्तु अगर नगर में भी मूर्ख की संगति मिलती है, तो वहां नहीं रहना चाहिए, क्योंकि मूर्ख के तो तोष एवं रोष दोनों व्यर्थ हैं, नुकसानकारक हैं।दोनों स्थिति में वह कुछ न कुछ गडबड किए बिना नहीं रहता। मूर्ख लोग देवलोक को भी नर्कागार बना सकते हैं, इतनी क्षमता उनमें होती है। बडी मुश्किल से, महापुण्ययोग से, अति दुर्लभ ऐसे सम्यक्त्वरत्न की प्राप्ति जिसे हो, वह मिथ्यामती लोगों की भीड में सम्मिलित हो जाए, यह कैसे चल सकता है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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