जैसे हम आत्मा हैं,
वैसे अनंतानंत आत्मा इस विश्व में अनादिकाल से विद्यमान हैं
और अनंतानंत काल तक अनंतानंत आत्मा इस जगत में विद्यमान रहने वाली हैं। अपना
अस्तित्व अर्थात् आत्मा मात्र का अस्तित्व कभी भी सर्वथा मिटने वाला नहीं है।
परंतु, हमारी आत्मा इस प्रकार भटकती-भटकती जीए, यह हम नहीं चाहते। आत्मा
जीवित तो रहने वाली है ही,
परंतु आत्मा इस प्रकार भटकती हुई जीवित रहे, यह
हमें पसंद नहीं है न?
इसीलिए हम संसार से छूटने और मोक्ष को पाने का पुरुषार्थ कर
रहे हैं, यह भी सत्य है न?
जिन्होंने अब तक यह पुरुषार्थ अंगीकार नहीं किया, वे
भी अब इस पुरुषार्थ को स्वीकार करना चाहते हैं न? हमें संसार से छूटना
है और मोक्ष पाना है,
यह हमारा लक्ष्य है। इसके लिए हमें जो पुरुषार्थ करना होता
है, उसमें सम्यक्त्व गुण की पहली आवश्यकता है।
सम्यक्त्व गुण प्रकट हुए बिना, किसी भी आत्मा को, किसी
भी काल में मुक्ति नहीं मिल सकती; और सम्यक्त्व गुण जिसमें प्रकट हो जाता है, उसके
लिए नरक गति और तिर्यंच गति के द्वार बंद हो जाते हैं। इतना ही नहीं, अपितु
दैवी सुख भी उसके स्वाधीन हो जाते हैं। जिस भव में सम्यक्त्व की प्राप्ति हो, उसी
भव में मुक्ति की प्राप्ति भी हो, ऐसे जीव थोडे हैं। मुक्ति-प्राप्ति के
पूर्व जिन जीवों को कुछ समय संसार में रहना होता है, ऐसे जीव सम्यक्त्व
प्राप्त करने वालों में अधिक संख्या में होते हैं।
ऐसे जीव मुक्ति को पाने से पूर्व कहां रहते हैं? संसार में तो रहते हैं, परंतु
कैसे स्थान पर रहते हैं?
सम्यक्त्व और जीव का सम्बंध यदि बराबर बना रहता है तो वह
जीव कभी भी दुर्गति में नहीं जाता है। सम्यक्त्व की प्राप्ति के पूर्व आयुष्य बांध
लिया हो तो अलग बात है। अन्यथा सम्यक्त्व की मौजूदगी में सम्यग्दृष्टि जीव को कभी
दुर्गति के आयुष्य का बंध नहीं होता। वह जीव न तो नर्क गति में जाता है और न
तिर्यंच गति में जाता है। शेष रही दो गतियों में भी वह जीव सुखवाले स्थान को पाता
है। अंततः वह जीव मनुष्य गति को नियमतः पाता है और सर्व कर्मों का क्षय करके
मुक्ति को प्राप्त करता है।
सम्यक्त्व की महिमा को बताने वाली इस बात का मर्म आपकी समझ में आता है? आत्मा
में सम्यक्त्व गुण का प्रकटीकरण हो जाए तो इतने मात्र से दुर्गति बंद हो जाती है
और सुख भी स्वाधीन हो जाता है, इसका क्या कारण है? सम्यक्त्व
को पाने मात्र से जीव खराब व्यवहार करने से रुक जाता है, ऐसा
नहीं है, परंतु खराब व्यवहार करने पर भी उस आत्मा में अच्छापन प्रकट होता है, जिसके
कारण उसके लिए दुर्गति के द्वार बंद हो जाते हैं और दैविक सुख, मानुषिक
सुख तथा मुक्ति सुख उसके स्वाधीन हो जाते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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