मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

धर्मी कहलाना सरल है, धर्मी बनना कठिन है


आत्मा को अर्थ-काम का परिचय अनादिकाल से है। अनादिकाल का अभ्यास होने से आत्मा उस तरफ न ही ढले, ऐसा नहीं कहा जा सकता। ढाल होने पर पानी ढलता है, इसी तरह आत्मा अर्थ-काम की तरफ ढल जाए, यह संभव है, परंतु विचार यह होना चाहिए कि यह खराब हो रहा है। आपको विचार करना चाहिए कि आत्मा अर्थ-काम की तरफ ढलती है या बढती है? आत्मा अर्थ-काम की तरफ उपादेय बुद्धि से खींचती जाती हो तो समझना चाहिए कि अभी गुण प्रकट नहीं हुआ है। प्रवृत्ति हो जाना सहज है, परंतु अर्थ-काम की तरफ आत्मा खींची चली जाती हो और उसमें आनंद मानती जाती हो, यह हानिकारक है, दुःखदायी है, संसार में भटकाने वाला है, ऐसा कभी न लगता हो और इस तरह इनमें यदि उपादेय बुद्धि आ जाती हो तो समझना चाहिए कि हमसे अभी सम्यग्दर्शन का गुण दूर है। यदि अर्थ-काम के संसर्ग में रहने पर भी, उसका भोगादि चालू होने पर भी, तारकों के कथनानुसार इनमें हेय बुद्धि रहती हो तो समझना चाहिए कि गुण प्रकट हुआ है।

सम्यग्दर्शन की अपेक्षा से धर्मी कौन? धर्म-अर्थ-काम में धर्म को ही उपादेय माने और अर्थ-काम को हेय ही माने वह। चाहे जैसे दिव्य सुख या मनुष्यलोक के सुख और सब पौद्गलिक सुख उस आत्मा को दुःखरूप लगने चाहिए, क्योंकि वह अर्थ और काम को हेय मानती है। आपको पौद्गलिक सुख कैसे लगते हैं? धर्मी कहलाना सरल है, स्वयं को धर्मी मान लेना सरल है, परंतु धर्मी बनना कठिन है।

अर्थ और काम हेय लगते हों, उनमें से उपादेय बुद्धि उड गई हो और हेय बुद्धि आ गई हो; और धर्म ही उपादेय लगता हो तो आत्मा का व्यवहार बदल जाता है। उसे प्रसंग-प्रसंग पर ऐसा लगता है कि मैं अपनी शक्तियों को हेय के पीछे क्यों बर्बाद करती हूं? उपादेय के आचरण में मैं पंगु क्यों हूं? वह उपदेश का आचरण न कर पाए, यह संभव है, हेय को न छोड पाए, यह संभव है, परंतु उसकी आत्मा ऐसा कहती है कि यह जो हो रहा है, वह अच्छा नहीं है। उसे यह लगता है कि संसार में बैठा हूं, इसलिए अर्थ-काम में मेरी प्रवृत्ति है, लेकिन है तो यह हेय ही और छोडने योग्य ही। अपनाने योग्य उपादेय तो सिर्फ धर्म ही है, क्योंकि उसी के माध्यम से मैं मोक्ष के लिए पुरुषार्थ कर सकता हूं।

सत्य को सत्य न मानने के कारण यह कठिनाई है। अर्थ-काम दुःखदायी हैं, यह अनुभव से मालूम पडता है, अनंत ज्ञानी महाउपकारी कहते हैं, तो भी हमें वह हेय न लगे और धर्म ही उपादेय न लगे, ऐसी दशा हो तो ऐसी आत्माओं को अवश्य चेत जाना चाहिए और धर्मी बनने के लिए प्रयत्नशील बन जाना चाहिए। प्रसंग आने पर आपकी धर्म के लिए अर्थ-काम को छोडने की वृत्ति है या अर्थ-काम के लिए धर्म को छोडने की वृत्ति है? सोचिए जरा! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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