सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

श्री जैनदर्शन ही एक सर्वांग सत्य है


जैनदर्शन को संप्राप्त व्यक्ति मर्जी में आए उसे ही पूजें ऐसा नहीं है, उसे तो गुणवान मात्र को पूजने चाहिए, मर्जी न हो तो भी गुणवान को पूजने का तो उसका फर्ज है। इसे ही मानूं’, ऐसा तो मिथ्यादृष्टि कहते हैं, परंतु सम्यग्दृष्टि ऐसा कहे ही नहीं। क्योंकि, इस शासन को पाए हुए व्यक्ति को तो योग्य हो उन सभी को मानने पडें। मर्जी में आए उसे माने, ऐसी छूट यहां नहीं है। विशेष में यदि सारे ही दर्शन युक्तियुक्त, वास्तविक एवं सत्य ही हों तो हम श्री जैनदर्शन के ही अनुयायी क्यों कहलाएं? क्यों कर सर्वदर्शन के अनुयायीन कहलवाएं? जो वस्तु युक्तियुक्त हो, उसे नहीं मानने की छूट सम्यग्दृष्टि आत्मा ले सके वैसा नहीं है। यदि ऐसी छूट ले तो मिथ्यादृष्टि में और उसमें फर्क भी क्या? यहां कुलपरंपरा का बचाव चले ही नहीं। कुलपरंपरा में भी जो सच्चा हो, वही माना जाए, परंतु जो गलत हो, वह नहीं ही माना जाए। सारे ही दर्शन यदि युक्तियुक्त ही होते तो एकांत गुण के ही पुजारी ऐसे हमारे पूर्वाचार्य अपने को जैनाचार्यके रूप में नहीं परिचित करवाते हुए सर्वदर्शनाचार्यके रूप में ही परिचित करवाते! परंतु ऐसा था ही नहीं, इसी कारण से कलिकालसर्वज्ञ भगवान श्री हेमचंद्रसूरीश्वरजी महाराजा कहते हैं कि माध्यस्थ के दिखावे से सर्वदर्शन को युक्तियुक्त कहकर उसकी स्तुति करना, यह भी सम्यक्त्व में दूषण है। इससे स्पष्ट ही है कि इस विश्व में सर्वांग सत्य दर्शन कोई है तो वह एक मात्र श्री जैनदर्शन ही है।

श्री जैनदर्शन के सिवाय के अन्य दर्शनों में नितांत अच्छाई नहीं है, ऐसा ही है, परंतु व्यवहार (दुनिया) का नियम है कि नदी-नाले में से कभी रत्न निकले तो वे भी रत्नाकर के ही माने जाएंगे। नदी-नाले में से रत्नादिक निकल जाएं, इसलिए वे नदी-नाले के नहीं कहे जाएंगे अथवा नदी-नाले को रत्नाकर भी नहीं कहा जाएगा। कहना ही पडेगा कि रत्न तो रत्नाकर में से ही निकले, परंतु अन्यत्र से हाथ लग जाए तो भी मानना कि पानी के बहाव के साथ आ गए थे, वे निकले। ऐसा आग्रह नहीं है कि अन्य स्थान से निकले ही नहीं। परंतु वे रत्न निकले सो तो रत्नाकर के ही। वैसे ही अन्य दर्शनों में जो अच्छापन आया है, उसमें भी प्रभाव मूल वस्तु (जैन धर्म) का है, परंतु जहां से अच्छापन आया है, वह उसका नहीं है। अन्य दर्शन में अच्छी वस्तु है, परंतु वह श्री जैनदर्शन की है। अतः वहां रही हुई वस्तु अच्छी है, परंतु वह स्थान अच्छा नहीं है। अन्य दर्शनों में जो सुंदरता का दर्शन होता है, वह उनका अपना प्रभाव नहीं है, अपितु श्री जैनदर्शन का ही प्रभाव है। किसी-किसी गुण को लेकर आगे कर देने मात्र से किसी भी काल में और किसी भी प्रकार से कुदर्शन सुदर्शन नहीं बनता। गुणमात्र की उत्पत्तिभूमि श्री जैनदर्शन है, विश्व में गुणमात्र का प्रवर्त्तन करने वाला एक श्री जैनदर्शन ही है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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