वर्तमान समय में शंका आदि पांचों दोषों का साम्राज्य व्याप्त है। बात-बात में
शंका होती है,
कांक्षा के विषय में तो कुछ पूछने जैसा ही नहीं है, फिर
विचिकित्सा तो अवश्य होगी। मिथ्यामति की प्रशंसा ने अपना दृढ स्थान बना ही लिया है
और उनके परिचय में वृद्धि होती ही जा रही है। गुणानुराग के नाम पर महापापियों की
प्रशंसा आप लोगों के द्वारा हो जाती है। गुणानुराग के नाम पर हिंसक वृत्तिवालों को
भी मंच पर बिठाने के लिए आप तैयार हो जाते हैं। संयम का समर्थ धारक हो, आगम
का ज्ञाता हो,
किन्तु सूत्र के विरूद्ध अगर वह एक अक्षर भी बोले तो उसकी
प्रशंसा नहीं की जानी चाहिए। ऐसे समय में उसका संयम या ज्ञान देखना नहीं होता।
अभवी जीव में चाहे साढे नव पूर्व का ज्ञान हो, भवी जीव के संयम से भी कहीं
उच्च कक्षा का संयम हो,
असंख्य आत्मा को मुक्ति दिला सके, ऐसी
उसकी देशना हो,
फिर भी अगर वह अभव्य है, ऐसा स्पष्ट हो जाए तो उसका
बहिष्कार करने की आज्ञा शासन में है। अनुचित गुणानुराग के नाम से पापपोषक आत्माओं
की प्रशंसा सम्यक्त्व के लिए महान दोष है। उसमें से बचने का कोई उपाय नहीं है।
शंका तथा कांक्षा करने वाला तो स्वयं मरता है, विचिकित्सा करने वाला
स्वयं जो प्राप्त किया है,
उसे हार जाता है, लेकिन मिथ्यामती की प्रशंसा
करने वाला स्वयं तो डूबता ही है, अपने साथ अनेकों को भी ले डूबता है। ऐसा
मनुष्य तो मानो पूरी नौका में छेद करने का काम करता है। हजारों लोगों के साथ नाव
में बैठकर उसी नाव में छेद करना, स्वयं डूबना तथा दूसरों को भी डुबाना, इसके
समान भयंकर पाप और क्या हो सकता है? अज्ञानवश अगर ऐसा हो तो अलग
बात है, लेकिन जो लोग समझपूर्वक ऐसा पाप करते हैं, वे किसी प्रकार दया के पात्र
नहीं हैं। वे हेतुपूर्वक यह सब करते हैं। शास्त्रकारों ने ऐसे मनुष्यों को रासभ
(गधा) वृत्तिवाले कहा है। हम वृत्ति से उनको रासभ के समान कहते हैं। आकार में तो
वे मनुष्य ही हैं,
मनुष्यों की सभा में आते हैं, बैठते हैं, नेता
के समान काम करते हैं,
वक्ता तथा लेखक होने का दावा करते हैं। समकिती इन सब बातों
का विवेक रखता। सम्यग्दृष्टि के अंतर में गुणानुराग तो होता ही है, उसके
बिना प्रमोद भावना टिक ही नहीं सकती। लेकिन उस भावना को अक्षुण्ण बनाए रखना और साथ
ही मिथ्यामती की प्रशंसारूप चौथा दूषण भी नहीं लगने देना, इन
दोनों बातों को ध्यान में रखना है। अगर गुणानुराग न रहा तो प्रमोद भावना खंडित होती
है और उसके नाम से मिथ्यामती की प्रशंसा होती है, तो सम्यक्त्व दूषित
होता है। गुणानुराग को अखंडित रखा जाए और वाणी पर अंकुश रखा जाए तो ही सम्यक्त्व
अक्षुण्ण बना रह सकता है। गुण को देखने के बाद अगर आनंद उत्पन्न न हो तो प्रमोद
भाव खंडित होता है और बोलने में गलती हो तो सम्यक्त्व खंडित होता है।-आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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