सम्यक्त्व पाने के लिए तो "संसार के सुख में ही सुख
मानने की और संसार में दुःख आए तो कायर हो जाने की जो खराब आदत पड गई है, उसे
हटाना पडेगा।" जो दुःख में रोया करता है और सुख में
हंसा करता है और फिर इसमें बुद्धिमानी मानता है, तो
वह जीव सम्यक्त्व पा सकता है? बाहर के सुख-दुःख में बहुत राग-द्वेष
युक्त बनने वाले तो प्राप्त सम्यक्त्व को भी गंवा बैठते हैं। बाहर के सुख-दुःख में
बहुत राग और बहुत द्वेष तो साधुपन को भी लूट लेते हैं, हम
लोग मान-पान आदि में फंस जाते हैं तो परिणाम में साधुपन भी चला जाता है और कदाचित
सम्यक्त्व भी जा सकता है।
जहां प्राप्त-वस्तु के भी जाने की संभावना हो, वहां सम्यक्त्व के आने
की तो संभावना ही नहीं है। एक-दो बार नहीं, बल्कि अनंत बार साधुपन लिया
हो और लेकर उसे अच्छी तरह पाला हो, अर्थात् अतिचार न लगे इस
प्रकार साधुत्व के आचारों का पालन किया हो, तो भी सम्यक्त्व प्रकट न हुआ
हो, ऐसे जीव भी इस संसार में होते हैं, ऐसा शास्त्र कहता है।
साधुत्व के पालन में स्वर्गादि सुख मिलते हैं, ऐसा सुनकर स्वर्गादि
सुख के लिए साधुपन ले और अच्छी तरह पाले, यह संभव है। विषय-कषाय के जोर
से उत्कट तप करे,
और उत्कट चारित्र पाले, यह भी संभव है। साधुपन से
सच्चा लाभ उसी को होता है,
जिसे संसार का कोई भी सुख, सुखरूप नहीं लगता। ऐसा
साधु इसका दुःख इस तरह टालो, उसका दुःख उस तरह टालो, ऐसी
पापमय प्रवृत्ति में कैसे पड सकता है?
कुछ लोग कहते हैं कि इससे प्रभावना होती है! घर बेचकर जीमन करने वाला क्या
बुद्धिमान कहा जाता है?
घर-बार बेचकर जीमन करे और जीमन में ऐसा जिमावे कि जीमन की
याद रह जाए! परंतु दूसरे दिन से वह अपना पेट भरने के लिए भीख मांगने निकले, तो
क्या यह अच्छा कहा जा सकता है?
जीमने वाले लोग भी,
उसे क्या कहेंगे? मूर्ख! इस तरह घर बेचकर जीमन
करने के लिए तुझे किसने कहा था? ऐसा ही लोग उसे कहेंगे न? इसी
प्रकार साधुत्व को भूलकर प्रभावना करने वाले को ज्ञानीजन क्या कहेंगे? जिस
धर्म को वह स्वयं धक्का दे रहा है, वह जीव धर्म की प्रभावना क्या
करेगा? वह धर्म की प्रभावना करेगा या अधर्म की? सम्यग्दर्शन पाने के बाद भी
अविरति के गाढ उदय वाले के सामने बहुत कठिनाई और बहुत भय रहता है। सम्यग्दर्शन से
पतित हो जाने की संभावना भी बहुत होती है। परंतु, जहां तक सम्यग्दर्शन
बराबर टिका रहता है,
वहां तक तो वह उत्तम में ही गिना जाता है। वह केवल मोक्ष के
लिए ही प्रयत्न करता है,
ऐसा कहा जा सकता है, भले ही उसका प्रयत्न धीमा हो।-आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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