दूसरे लोगों में गुण होते ही नहीं अथवा दूसरे लोगों के गुण देखकर प्रसन्न नहीं
होना चाहिए, ऐसा हम कहना नहीं चाहते हैं। गुणों को देखकर प्रसन्न अवश्य होना चाहिए, लेकिन
उसके पीछे पागल तो कभी नहीं होना चाहिए। ग्राहक उसे सामान्य सभ्यता का गुण समझे तब
तक ठीक है, लेकिन अगर वह उसमें फंस जाए और ऐसा मान ले कि, ‘यह आदमी तो बहुत अच्छा
है, यहां मोलतोल नहीं करना चाहिए’ तो शायद ग्राहक लुटा जाएगा। सभ्यता के नाम
पर आज लुटे जाने में देर नहीं लगती है। इसलिए सावधान रहने की बहुत आवश्यकता है।
शांति, सभ्यता, क्षमाशीलता आदि गुणों को देखकर प्रसन्न होना चाहिए, किन्तु
वास्तव में ये गुण प्रशंसनीय हों तो ही प्रशंसा करें, अन्यथा
मौन रहें।
कुमत फैलाने वालों में शांति एक प्राकृतिक गुण होता है। भिखारी को आप चार
गालियां देंगे तो भी वह मुंह नहीं बिगाडेगा, वह तो आपको अन्नदाता ही
कहेगा। वह गुस्सा नहीं करेगा और आँखों में आँसू नहीं आते होंगे तो भी आँसू लाएगा।
वह समझता है कि अगर यहां क्षमा न रखी गई तो मेरी भीख जाएगी। क्या ऐसी क्षमा
प्रशंसा की पात्र है?
इस क्षमा को देखकर ऐसा विचार अवश्य होना चाहिए कि मोक्ष की
साधना करनी है तो हम भी इसी प्रकार क्षमा धारण करें। भिखारी रोटी के टुकडे के लिए
जितनी इच्छा और प्रवृत्ति करता है, इतनी इच्छा और प्रवृत्ति
हमारे अंतःकरण में मोक्ष के लिए, धर्म के लिए नहीं है। जितना प्रेम, जितनी
गरज और आतुरता भिखारी के मन में रोटी के टुकडे के लिए है, उसका
एक शतांश भी हमारे हृदय में धर्म के लिए हो तो हमारा इच्छित काम हो जाए। फिर हमारी
दशा आज के जैसी नहीं रहे।
भिखारी की क्षमा के लिए मन में इस प्रकार सोचें अवश्य, लेकिन
उसकी प्रशंसा न की जाए। वह तो कृपण को दानवीर तथा अधर्मी को धर्मवीर भी कहेगा, जो
भी उसे रोटी का टुकडा देगा,
उसे वह धर्मात्मा कहेगा। भिखारी को अगर कोई कहे कि ‘वह
व्यक्ति तो कसाई है’,
तो वह कहेगा कि ‘वह कुछ भी हो, मुझे
तो रोटी का टुकडा देता है न? इसलिए मेरे लिए तो वह अन्नदाता है, धर्मात्मा
है।’ भिखारी की यह क्षमा और उदारता का गुण अगर धर्मसाधना में आ सके तो अच्छा है, ऐसा
मन में सोचना चाहिए,
लेकिन शब्दों में खुले आम उसकी प्रशंसा नहीं की जाए। बगुले
की शांति मछलियों को पकडने हेतु होती है। ऐसी ही शांति पापोन्मुख न होने के हेतु
हम रखना सीखें तो बहुत लाभ हो सकता है। इसी प्रकार अगर व्यापारी की क्षमा, उदारता
आदि के विषय में समझें और इन सब गुणों की अपने हृदय में अनुमोदना इस प्रकार करें
कि ऐसे गुण धर्मबुद्धि से हम प्राप्त कर सकें तो कितना अच्छा हो? कितु
इनकी प्रशंसा प्रकट रूप से नहीं की जा सकती।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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